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________________ नरसिंहराजपुर | 135 हरी-भरी पहाड़ियाँ और जंगल हैं। एक मिनी बस नरसिंहराजपुर से कारकल भी जाती है। बिरूर (Birur) और शिमोगा से भी बस द्वारा पहुँचा जा सकता है । शिमोगा से बहुत-सी बसें आती हैं। बस स्टैण्ड मठ से एक कि. मी. दूर है। बस वाले मठ के सामने से भी सवारी ले लेते हैं या वहाँ उतार देते हैं। यहाँ एकमात्र सवारी आटोरिक्शा है। निकट रेलवे स्टेशन पूना-बंगलोर रेलवे लाइन पर बिरूर जंक्शन है । बिरूर-तालगप्पा लाइन पर शिमोगा भी पास पड़ता है। क्षेत्र दर्शन ___ इस क्षेत्र का नाम 'सिंहदन गद्दे' जैन मठ या बसदि या ज्वालामालिनी है। सिंह+दन (गाय)गटे (खेती) से मिलकर इस मठ का नाम बना है। बताया जाता है कि कि लगभग 650 वर्ष पूर्व, आचार्य समन्तभद्र गेरुसोप्पे (जोग झरनों के पास एक स्थान) से जब ज्वालामालिनी यक्षी (चन्द्रप्रभ की यक्षी) की मूर्ति यहाँ लाये थे तब उन्होंने एक खेत में सिंह और गाय को साथ-साथ निर्भीक विचरण करते देखा तो उन्होंने प्राचीन शान्तिनाथ मन्दिर के पास ही ज्वालामालिनी की मूर्ति प्रतिष्ठापित कर, यक्षी के मन्दिर का निर्माण करवाया । तब से यह स्थान 'सिंहदनगद्दे' कहलाने लगा। ___ज्वालामालिनी मूर्ति यहाँ लाने का कारण यह था-गेरुसोप्पे में चन्नवैरादेवी नामक जैन रानी का राज्य था। लड़ाई में पुर्तगालियों ने रानी को हरा दिया और जैन मन्दिरों को भी जी-भरकर नष्ट किया । इस विनाशलीला के साक्षी वहाँ के ध्वस्त जैन मन्दिर अब भी हैं। इस स्थान की एक चतुर्मुखी प्रतिमा का अंकन बहुत ही सुन्दर है । यह चौदहवीं शताब्दी की मानी जाती है और विजयनगर काल के प्रारम्भिक समय की कृति बताई जाती है। यहाँ कुल 6 मन्दिर हैं । ये प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकार के हैं। चन्द्रप्रभ या चन्द्रनाथ मन्दिर प्राचीन मन्दिर के स्थान पर नया बना है। उसमें विराजमान चन्द्रप्रभ की मूर्ति पद्मासन में है। यह संगमरमर की है और लगभग 4 फुट ऊँची है। उस पर चन्द्रप्रभ का लांछन हरिण उत्कीर्ण है। वेदी साधारण है । गर्भगृह के बाहर एक हॉल (सभामण्डप) है जिसके तीन ओर बरामदे हैं। सामने एक खुला प्रांगण भी है। मन्दिर चौकोर है। उसके स्तम्भों पर भी डिजाइन है । प्रवेशद्वार का सिरदल पाषाण-निर्मित है और उस पर पद्मासन में तीर्थंकर मूर्ति है तथा नीचे यक्ष-यक्षी। मन्दिर का नया द्वार आकर्षक है, उस पर पुष्पावली का सुन्दर उत्कीर्णन है । प्रवेशद्वार की सीढ़ियों के दोनों ओर व्याल का अंकन है । मन्दिर चौकोरपाषाणों से निर्मित है। उस पर कुछ ऊँचा शिखर भी है । इस मन्दिर के निर्माण में साहू श्रेयांस प्रसाद जी ने डेढ़ लाख रुपये का दान दिया था। दूसरा मन्दिर श्री पार्श्वनाथ स्वामी जैन मन्दिर कहलाता है। यहाँ के एक शिलालेख के अनुसार, इस मन्दिर का निर्माण विजयनगर के शासक कृष्णदेवराय के शासनकाल में हुआ था। मन्दिर और उसमें विराजमान प्रतिमा और भी प्राचीन बताए जाते हैं । शिलालेख मन्दिर में लगा है किन्तु गर्भगृह सहित मन्दिर नया बन गया है। यह एक सांधार या प्रदक्षिणापथ युक्त मन्दिर है। गर्भगह के आगे दो मण्डप या हॉल हैं और उनसे भी आगे एक खुला बरामदा या अग्रमण्डप है । मन्दिर में चौखटों (फेम) में जड़े चित्र या पेण्टिग्स भी हैं । मूलनायक पार्श्व
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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