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________________ 120 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) भोजन खिलाने लगी। राजा ने उस दिन के बाद से भोजन के लिए अन्तःपुर में जाना भी छोड़ दिया। - एक दिन रसोइये को मांस नहीं मिला तो उसने शूली पर चढ़ाए गए एक व्यक्ति का मांस पकाकर राजा को परोस दिया। सहकार को वह रुचिकर लगा। उसके पूछने पर रसोइये ने डरते-डरते नरमांस की घटना राजा को सुना दी। क्षुब्ध न होकर राजा ने प्रतिदिन इसी प्रकार का मांस पकाकर परोसने का आदेश दे दिया। अब उस नगरी में जो भी नया व्यक्ति आता उसका वध कर, राजा को मांस खिलाया जाने लगा। इससे प्रजा में बड़ी खलबली मच गई, फुसफुसाहट बढ़ने लगी, असन्तोष फैलने लगा। उससे घबराकर रसोइये ने राजा से कहा कि "अब मैं नर-मांस जुटाने में असमर्थ हूँ। हाँ, यदि किसी व्यक्ति को आप हाथ में नीबू देकर मेरे पास भेजेंगे तो मैं उस व्यक्ति का मांस पका दिया करूँगा।" इस प्रकार राजा का नरमांस भक्षण बढ़ता ही गया। परिस्थिति को देखकर बुद्धिमान महामन्त्री ने राजा सहकार से जिनदत्त का राज्याभिषेक करने की अनुमति मांगो। राजा ने सहमति दे दी। शबरी रानी को जब यह समाचार मिला तो वह राजा सहकार पर विश्वासघात का आरोप लगाकर प्राण दे देने की धमकी देने लगी। राजा ने उसे बताया कि उसके पूत्र मारिदत्त को भी उसने अलग राज्य दे दिया है तो भी वह नहीं मानी। उसने राजा से कहा, "जिनदत्त आपके लिए भी घातक सिद्ध होगा।" उसने इस बात पर जोर दिया कि राजा के नर-मांस भक्षण से प्रजा असन्तुष्ट हो चुकी है और जिनदत्त के साथ मिलकर राज-विद्रोह करने वाली है। राजा को शबरी की यह बात अँच गई। दोनों ने मिलकर अन्त में यह योजना बनाई कि जिनदत्त को हाथ में नींबू देकर पाकशाला में भेजा जाए। राजा सहकार और शबरी रानी की योजना के अनुसार, जिनदत्त को हाथ में नीबू देकर पाकशाला भेजा गया किन्तु रास्ते में उसे शबरी का पुत्र मारिदत्त मिल गया। उसने बड़े भाई से वह नीबू ले लिया और स्वयं ही पाकशाला में रसोइये को नीबू देने के लिए चला गया। राजा के आदेशानुसार रसोइये ने मारिदत्त का वध कर डाला और उसका माँस सहकार और शबरी के सामने परोस दिया। राजा-रानी ने भोजन के समय मारिदत्त की अनुपस्थिति का कारण पूछा तो रसोइये ने नीबू लेकर आए मारिदत्त सम्बन्धी घटना उन्हें बता दी। सहकार और शबरी के क्रोध की सीमा नहीं रही । उन्होंने जिनदत्त के वध के लिए सेना को आदेश दे दिया। उधर श्रियादेवी ने जब यह संवाद सुना तो वह जिनदत्त के प्राणों की रक्षा के लिए चिन्तित हो उठी। दोनों माँ-बेटे, आचार्य सिद्धान्तकीर्ति के पास पहुँचे। गुरु ने जिनदत्त को परामर्श दिया कि, “तुम अश्वशाला के उस घोड़े पर, जो अपना दहिना पैर उठाकर खड़ा हो, सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर तुरन्त चले जाओ। और हाँ, पद्मावती देवी की यह प्रतिमा भी साथ लेते जाओ। जब भी सेना तुम्हारा पीछा करे, उसे तुम यह मूर्ति दिखा देना, तुम्हारे सब कष्ट दूर हो जाएँगे।" जिनदत्त माता से उसी समय विदा लेकर अश्व पर वहाँ से भाग निकला । पीछा करती सेना को उसने जब पद्मावती की प्रतिमा दिखाई तो सेना के लोग मूच्छित हो गये और उसे पकड़ नहीं सके। जिनदत्त सुदूर दक्षिण में (आज के हुमचा तक) आ गया।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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