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________________ हुमचा | 119 मुनि सिद्धान्तकोति के भी वे भक्त थे। उनके तीन पुत्रियाँ हुईं किन्तु कोई पुत्र नहीं था। रानी इस कारण चिन्तित रहती थी। मनिराज से पूछने पर उन्होंने बताया कि पद्मावती देवी की कृपा से उन्हें शीघ्र ही पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। गर्भावस्था में रानी ने स्वप्न में हंसी पक्षी के एक शिशु को समूह से बिछुड़कर एक अन्य तालाब में प्रवेश करते देखा । फल पूछने पर मुनिराज ने बताया कि रानी एक तत्त्वज्ञानी पुत्र को जन्म देगी किन्तु वह जब सोलह वर्ष का होगा तब उस पर विपत्ति आएगी और वह किसी दूसरे नगर में जाकर रहने लगेगा। समय आने पर रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम जिनदत्त रखा गया। (यही बालक आगे चलकर दक्षिण में हुम्मच के सान्तर राजवंश का मूल पुरुष हुआ।) कुछ समय पश्चात् राजा को सूचना मिली कि उसके सीमा-प्रदेश के लोगों ने कर, भेंट आदि देना बन्द कर दिया है। यह सुन राजा उन लोगों को दण्डित करने के लिए राजधानी से चला। जाते समय उसने मुनिराज की वन्दना की । मुनि सिद्धान्तकीति ने उसे बताया कि विजय तो उसकी होगी किन्तु कुल के लिए एक बाधा है, उससे सावधान रहना होगा। किन्तु वापस लौटते समय राजा पद्मिनी जाति की एक अत्यन्त सुन्दर व्याधकन्या पर आसक्त हो गया। मन्त्री के समझाने के बावजूद भी, वह उससे विवाह की हठ कर बैठा । आखिर मन्त्री ने शबर को बुलाकर अपनी कन्या से राजा का विवाह कर देने का आग्रह किया। वृद्ध शबर ने पहले तो यही विचारा कि राजा का हीनकुल की कन्या पर प्रेम चंचल है। किन्तु जब राजा ने अपना आग्रह दोहराया तो उस भील ने राजा से निवेदन किया, "मेरी पुत्री से उत्पन्न पुत्र को आप वही प्रेम और सम्मान देंगे जो कि एक औरस पुत्र को मिलता है।" राजा ने इस पर यह प्रतिज्ञा की कि शबरी से उत्पन्न पुत्र ही राजा होगा और उसका वचन असत्य नहीं होगा। दोनों का विवाह हो गया। राजा सहकार नववधू को अपनी नगरी में ले आया और उसे एक अलग महल में रखा। रानी श्रियादेवी को जब इस बात का पता चला तो उसने बहुत विलाप किया। जब राजा ने उसके मुख से सुना कि “राजा ने मेरे साथ धोखा किया है, अन्याय किया है", तो उसने रानी से कहा, "मेरे पूर्वजन्म के दुष्कर्म ने मुझसे यह पाप करवाया है। तुम दुखी मत होओ। मैं तुम्हारे ही पुत्र को राज्य सौंपकर अलग रहूँगा।" रानी ने इस घटना को अपने ही कर्म का दोष मानकर, एक मुनिराज के सम्मुख दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। मुनिवर ने उसे समझाया कि, "अभी तुम्हारे अपने पुत्र को बड़ा हो जाने दो, उसके बाद ही दीक्षा लेना।" इधर राजा ने जिनदत्त को युवराज पद दे दिया। रानी ने भी ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। अब राजा समस्त राजकार्य भुलाकर शबरी रानी के साथ जलक्रीड़ा, वनक्रीड़ा आदि नाना क्रीड़ाएँ करते हुए शबरी-महल में ही अपना सारा समय बिताने लगा। वह केवल भोजन करने के लिए अन्तःपुर में आता था। एक दिन उसे शबरी रानी के साथ शतरंज खेलते-खेलते संध्या हो गई और रात्रि का समय निकट आ गया। भोजन के लिए जब जाने लगा तो शबरी रानी ने उसे रोक लिया और अपने साथ ही भोजन करने का आग्रह करने लगी। जब राजा तैयार नहीं हुआ तो उसने राजा से उसका भोजन ही देखने के लिए कहा। उसे मद्य-मांस मिश्रित भोजन परोसा गया। शबरी ने सेवकों को विदा किया और राजा का आलिंगन कर उसे वह
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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