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114 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
था। यहाँ नेमिनाथ मन्दिर भी बना । इस स्थान के अनेक भव्यों ने श्रवणबेलगोल के मन्दिरों का उद्धार कराया था। यहाँ चतुर्मुख बसदि, नेमिनाथ बसदि, पार्श्वनाथ बसदि और ज्वालामालिनी बसदि नामक चार मन्दिर हैं । कुछ ध्वंसावशेष भी हैं।
'चतुर्मुख बसदि' का समय 15वीं या 17वीं सदी माना जाता है । इसके ध्वस्त स्तम्भों को मन्दिर के आस-पास पुनः स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। मन्दिर की चौकी पर पशुपक्षियों का सुन्दर उत्कीर्णन है। उसके भीतरी स्तम्भों पर भी सुन्दर कारीगरी है। मन्दिर में चैत्य-गवाक्ष भी है। सिरदल पर पद्मासन में तीर्थंकर प्रतिमा और गर्भगृह के प्रवेशद्वार पर द्वारपालों का अंकन है। चौमुखे की चार प्रतिमाएँ 15वीं शताब्दी की और आठ फुट ऊँची हैं । ये स्तम्भोंयूक्त चाप के अतिरिक्त, छत्रत्रयी से शोभायमान हैं। एक प्रतिमा ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ की है। इसकी पहिचान यक्ष-यक्षी ईश्वर और गौरी से होती है । दूसरी प्रतिमा विमलनाथ की है जो कि अपने लांछन वराह से युक्त है । तीर्थंकर मल्लिनाथ की तीसरी प्रतिमा की पहिचान यक्ष-यक्षी कुबेर और अपराजिता के वाहनों से होती है । चौथी प्रतिमा महावीर स्वामी की है। वे यक्ष-यक्षी मातंग और सिद्धायिका से तथा उनके वाहन से पहचाने जाते हैं। यह मन्दिर 'जलमन्दिर' भी कहलाता है।
'नेमिनाथ बसदि' में तीर्थंकर नेमिनाथ पद्मासन में छत्रत्रयी से युक्त हैं। उनके यक्ष-यक्षी भी अंकित हैं। चँवरधारियों का अंकन सिर से ऊपर तक है । प्रतिमा पर मकर-तोरण है। मूर्ति 14वीं सदी की और लगभग साढ़े सात फुट ऊँची है।
___ 'पार्श्वनाथ बसदि' की भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा पन्द्रहवीं सदी के आस-पास की है और लगभग पाँच फुट ऊँची है। उस पर एक ही छत्र है। यक्ष-यक्षी घुटनों तक हैं, सर्पकुण्डली तथा मकरतोरण भी अंकित हैं।
_ 'ज्वालामालिनी बसदि' एक अलग ही मन्दिर है । उसमें ग्यारहवीं सदी की यक्षी लगभग दो फुट ऊँची है। वह समभंग मुद्रा में है। उसके आठ हाथ चित्रित हैं। इस मन्दिर में भी खण्डित चौबीसी और तीर्थंकर पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग तथा पद्मासन मूर्तियाँ हैं। ये भी 14वीं और 15वीं सदी की हैं।
भटकल (Bhatkal)
यह स्थान गेरुसोप्पा से थोड़ी ही दूर पर समुद्र के किनारे स्थित है । किसी समय यहाँ मोतियों का व्यापार होता था। इस कारण इसे 'मोती भटकल' भी कहते थे । यहाँ 'जटप्पा नायकन चन्द्रनाथेश्वर बसदि' है। उसके सामने मानस्तम्भ है। मन्दिर की अधिकांश छत ढलुआ है। हाडुवल्लि (Haduvalli)
यह स्थान भटकल तालुक में है। इसका प्राचीन नाम संगीतपुर था । यह तौलवदेश के अन्तर्गत आता है। किसी समय समृद्ध इस नगर का राजा सालुवेन्द्र जैन धर्म का अनुयायी था। उसके समय में जैन धर्म की खूब उन्नति हुई। वह चन्द्रप्रभ का भक्त था। उसने 1488 ई. में