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112 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
दबाव जोर का होता है, इस कारण राकेट जैसी आवाज़ करती है। चौथी और अन्तिम धारा का नाम 'रानी' है क्योंकि यह बिना शोर मचाए गिरती है।
शरावती की ये चारों धाराएँ फिर नदी का रूप धारण कर अगले 17 कि. मी. का मार्ग तय कर अरब सागर में जा मिलती हैं।
उपर्युक्त झरनों का आनन्द लेने के लिए बैठने आदि की सुन्दर व्यवस्था है। साथ ही वुडलेण्ड्स आदि होटल हैं। सबसे अच्छा मौसम सितम्बर-अक्टूबर है । गर्मियों में धाराएँ कुछ क्षीण पड़ जाती हैं।
सागर से जोग-झरनों तक जाते समय रास्ते में तालगप्पा आता है जहाँ पहाड़ी पर टूरिस्ट बंगला और पहाड़ी के नीचे सुन्दर सरोवर है । आगे चलकर शरावती नदी बिजली योजना (1947 में प्रारम्भ हुई थी) का बाँध आता है । काजू के अनेक पेड़ और आदिवासियों के या कृषकों के समूह दिखाई देते हैं । इन लोगों के सिर पर सुपारी या अन्य किसी पत्ते की टोपी भी देखने लायक होती है। यहीं महात्मा गाँधी पनबिजली केन्द्र है। वास्तव में यह शरावती घाटी है।
झरनों के बाद यदि पर्यटक चाहे तो गेरसोप्पा की ओर जा सकता है या सागर वापस लौटकर अपनी आगे की यात्रा प्रारम्भ कर सकता है। अपना साधन होने पर सिरसी-तालगप्पाजोग झरने-तालगप्पा-सागर मार्ग ठीक रहेगा।
कारवाड़ जिले के अन्य जैन-स्थल ...
कारवाड़ जिले का नया नाम है। वैसे यह उत्तर कनारा (North Kanara) कहलाता था। प्राचीन काल में यह प्रदेश 'बनवोस' कहलाता था।
यह ज़िला जैनधर्म का एक सुप्रसिद्ध केन्द्र रहा है । जैन स्मारकों या विद्यापीठ के अतिरिक्त जैनधर्म के महान् ग्रन्थ 'षट्खण्डागम' का प्रारम्भ भी इस 'वनवास' में हुआ। बनवासि (Banvasi)
यह स्थान सिरसी से 25 कि. मी. की दूरी पर है। यहाँ कदम्ब वंश के राजाओं की भी राजधानी थी। इस वंश के अनेक राजा जैनधर्म के अनुयायी या पोषक थे । लोग यह अर्थ भो निकालते हैं कि श्री रामचन्द्र के वनवास के कारण यह प्रदेश बनबास बनवासि कहलाया।
महावीर स्वामी के निर्वाण को साढ़े छह सौ वर्ष हो चुके थे। इतने समय तक उनके उपदेशों की मौखिक परम्परा ही प्रमुख थी किन्तु उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा था। यह स्थिति जानकर गिरिनगर (जूनागढ़) में तपस्या एवं ज्ञान-प्रसार में रत आचार्य धरसेन चिन्तित हुए। उन्होंने दक्षिण प्रदेश के मुनि-संघ से दो योग्य शिष्य भेजने का अनुरोध किया । फलस्वरूप पुष्पदन्त और भूतबलि ये दो मुनि उनके पास भेजे गए। आचार्य