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________________ हम्पी | 73 राजा' पाया जाता है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इनमें से कुछ राजा जैन थे और इनके राज्य में प्राकृत का प्रचार था। जैन ग्रन्थों 'कातन्त्र व्याकरण', गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' आदि की रचना इन्हीं के प्रश्रय में हुई, ऐसा माना जाता है। सातवाहनों के बाद, यह प्रदेश चुटु लोगों की अधीनता में आ गया जो कि आन्ध्रभृत्य कहलाते थे। - उपर्युक्त चुटुओं के बाद, इस प्रदेश पर कदम्ब कुल के राजाओं का अधिकार हुआ। इस वंश के दूसरे राजा शिवस्कन्द अथवा शिवकोटि को समन्तभद्राचार्य ने दीक्षा दी थी। इसी वंश के राजा काकुस्थवर्मन् के 400 ई० के हलसी ताम्रलेख से यह स्पष्ट है कि वह जैन धर्म का पोषक था और उसने जैन मन्दिर के लिए दान दिया था। कदम्ब वंश के अन्य जैन राजाशान्तिवर्मन, मृगेशवर्मन्, रविवर्मन् और हरिवर्मन् जैनधर्म के अनुयायी थे। ईसा की छठी शताब्दी तक इनका शासन ठीक चलता रहा। कदम्बों के बाद यहाँ वातापि (बादामी) के चालुक्यों का शासन रहा। इस वंश का प्रसिद्ध राजा पुलकेशी (द्वितीय) जैन धर्म का प्रश्रयदाता था। ऐहोल के मेगुटी मन्दिर के शिलालेख से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है। आठवीं सदी में राष्ट्रकूट शासक-वंश का उदय हुआ और वे दो सौ वर्षों तक राज्य करते रहे । उनकी राजधानी मान्यखेट (आधुनिक मलखेड) थी। इस वंश का सम्राट अमोघवर्ष जैन धर्म का पक्का अनुयायी था। उसी के शासन-काल में जिनसेनाचार्य (द्वितीय) ने साठ हजार श्लोकों में जयधवल की रचना की, संस्कृत महापुराण (आदिपुराण भाग) की श्रेष्ठ काव्यमयी सृष्टि की। डॉ० अल्तेकर के अनुसार, राष्ट्रकूटों के शासन-काल में लगभग दो-तिहाई प्रजा जैनधर्म का पालन करती थी। राष्ट्रकूटों के बाद, उपर्युक्त प्रदेश पर नोलम्ब वंश का राज्य रहा। उनके बाद 973 से 1200 ई० तक कल्याणी के जैन राजाओं के अधिकार में यह प्रदेश बना रहा। कल्याणी शासन के बाद यह क्षेत्र द्वारसमुद्र के होयसल राजवंश के अधीन हो गया। इस वंश का शासक बिट्रिदेव (विष्णवर्धन) जैनधर्मानयायी था, बाद में वह वैष्णव बन गया। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन का मत है कि इस राजा ने धर्म-परिवर्तन नहीं किया। उसकी जैन पट्टमहिषी शान्तला ने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया और दान दिया था। वह दक्षिण भारत की सर्वाधिक प्रसिद्ध महारानी, विदुषी एवं संगीत तथा नृत्य में निष्णात महिला थी। इसी वंश का नरेश बल्लाल द्वितीय (1173-1220 ई.) भी जैन धर्म का अनुयायी था और उसने तीर्थ-यात्राएँ की थीं और जैन मन्दिरों को पर्याप्त दान दिया था। उसके बाद इस वंश का पतन प्रारम्भ हुआ। सन 1310 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने द्वारसमुद्र पर आक्रमण कर दिया और उसे अपने अधीन कर लिया। होयसल के कुछ सामन्त स्वतन्त्र हो गए। कुछ समय तक हम्पी क्षेत्र समीपस्थ कम्पिला के सामन्तों के अधिकार में आ गया। ये सामन्त देवगिरि (आधनिक दौलताबाद) के यादवों के अधीन थे। किन्तु देवगिरि पर भी मुहम्मद तुगलक का अधिकार हो गया। इस समय कम्पिला के शासक ने तुगलक के विरुद्ध विद्रोह करने वाले 1. देखें 'पट्टमहादेवी शान्तला' (4 भागों में) ज्ञानपीठ से प्रकाशित ऐतिहासिक उपन्यास । ।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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