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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अतिशय क्षेत्रका इतिहास और किंवदन्तियाँ
इस क्षेत्रकी मूलनायक प्रतिमाके सम्बन्धमें यह अनुश्रुति प्रचलित है कि विक्रम सं. १८८९ की भाद्रपद कृष्णा १ को आलनपुरके नाथ सम्प्रदायके एक जोगीको स्वप्न हुआ, “कल खेतमें जहाँ तेरा चलता हुआ हल रुका था, वह चलेगा नहीं; वहाँ खोदनेपर भगवान् प्रकट होंगे।" प्रातःकाल उठनेपर वह अपने स्वप्नके सम्बन्धमें विचार करके बड़ा विस्मित हआ। उसने इस स्वप्नकी चर्चा अपनी स्त्री और पुत्रोंसे की। निश्चय हुआ कि स्वप्नकी सत्यताकी जांच की जाये। फलतः सब लोग खेतपर पहुंचे और जहां हल रुका हुआ था, उस स्थानकी खुदाई प्रारम्भ की। कुछ समय पश्चात् ही काँचकी कोई वस्तु दिखाई दी। तब धीरे-धीरे उसके चारों ओरसे मिट्टी हटाकर उसे निकाला । देखा कि वह तो स्फटिककी भगवान्की प्रतिमा है।
भगवानकी प्रतिमाके निकलनेपर जोगी और उसके परिवारके सभी लोग अत्यन्त हर्षित हुए। जोगीने भगवान्को एक ऊँचे स्थानपर रखा। तभी आकाशसे केशर-वर्षा हुई और जयजयकारकी ध्वनि हुई।
भगवान् भूगर्भसे प्रकट हुए हैं, यह समाचार विद्युत्-वेगसे निकटवर्ती नगरीमें फैल गया। समाचार सुनते ही सहस्रोंकी संख्यामें जैनाजैन यहाँ आकर भगवान्के दर्शन करने लगे। जैनोंने देखा कि मूर्तिके नीचे वृषभका चिह्न अंकित है। उन्होंने कहा-यह मूर्ति भगवान् ऋषभदेबकी है। तब सबने भगवान् ऋषभदेवके जयकारोंसे आकाश गुंजा दिया। तव प्रतिमाको उठाकर उस स्थानपर लाये जहाँ क्षेत्रका मन्दिर है। वहाँ उच्चासनपर प्रतिमाको विराजमान करके जैनोंने भक्तिभावपूर्वक अष्ट द्रव्यसे पूजा की।
तदनन्तर सभी समागत जैनोंने विचार-विमर्श किया कि इस मतिको कहाँ विराजमान किया जाये । विभिन्न स्थानोंसे आये हुए सज्जन उसे अपने-अपने यहाँ ले जानेकी वात करने लगे। अन्तमें निश्चय हुआ कि यह प्रतिमा सवाई माधोपुरमें विराजमान होनी चाहिए। निश्चयानुसार दूसरे दिन रथमें प्रतिमाको विराजमान करके सवाई माधोपुर ले जानेका आयोजन किया गया, किन्तु आश्चर्यकी बात हुई कि रथ चलानेपर टससे मस नहीं हुआ, वह अचल हो गया।
बेचारा जोगी दुःखसे व्याकुल था। ये लोग भगवान्को बलात् अन्यत्र लिये जा रहे थे। जबसे उसने भगवान्को अन्यत्र ले जाने की बात सुनी. तभीसे उसकी आँखें सावन-भादों बन रही थी, वह लम्बी-लम्बी सांसें लेता हुआ केवल भगवान्को ही निहारे जा रहा था।
जब रथ प्रयत्न करनेपर भी नहीं चला तो सब लोग बड़े निराश हुए। रात्रिमें सबने वहाँ विश्राम किया। सब निद्राका आनन्द ले रहे थे, किन्तु जोगीको आँखोंमें नींद कहाँ । मनमें एक ही बात अनेक रूप धारण करके आ रही थी-"भगवान् ! क्या तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? अगर तुम्हें जाना ही था तो फिर मुझे दर्शन ही क्यों दिये ?"
रात्रिके अन्तिम प्रहरमें जोगीको नींद आ गयी। उसने स्वप्नमें देखा, कोई उससे कह रहा है-"भगवान् कहीं नहीं जायेंगे, यहीं रहेंगे और उनका मन्दिर यहीं बनेगा, भगवान्का रथ यहाँसे कभी नहीं चलेगा।"
प्रातःकाल होनेपर जोगीने अपने स्वप्नको चर्चा की। उधर पुनः प्रयत्न करनेपर भी जब रथ नहीं चल सका, तब जैनोंने यही उचित समझा कि यहींपर वेदीका निर्माण करके भगवानको विराजमान कर दिया जाये, फिर यहींपर मन्दिरका निर्माण कराया जाये । जहाँ मूर्ति निकली थी, वहाँ छतरी बनानेका निर्णय किया गया। निर्णयानुसार वेदी, मन्दिर और छतरीका निर्माण कराया गया।