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भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीको इस बातका बहुत हर्ष है. कि उसने भगवान महावीरके २५००वें निर्वाण महोत्सव वर्षके उपलक्ष्यमें 'भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ' ग्रन्थको पांच या छह भागोंमें प्रकाशित करनेकी जिस योजनाका समारम्भ किया था उसका अब यह चतुर्थ भाग भी प्रकाशित होकर आपके हाथों पहुंच रहा है। इसका सम्बन्ध राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्रके जैन तीर्थोसे है। पूर्व प्रकाशित इसके तीन भागोंमें क्रमशः उत्तरप्रदेश (दिल्ली तथा पोदनपुर-तक्षशिला सहित ), बिहार-बंगाल-उड़ीसा
और मध्यप्रदेशके तीयौका उनके पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, स्थापत्य एवं कला आदिक सन्दर्भमें विस्तृत विवेचन किया गया है।
__वास्तवमें हमारी पीढ़ी का यह परम सौभाग्य है कि हमें भगवान् महावीरके निर्वाणके ढाई हजारवें वर्षकी परिसमाप्तिके इस महान् पर्वको मनानेका अवसर प्राप्त हुआ। हमारी सद्-आस्थाको आधार देनेवाले, हमारे जीवनको कल्याणमय बनानेवाले, हमारी धार्मिक परम्पराकी अहिंसामूलक संस्कृतिकी ज्योतिको प्रकाशमान रखनेवाले, जन-जनका कल्याण करनेवाले हमारे तीर्थकर ही हैं। जन्म-मरणके भवसागरसे उबारकर अक्षय सुखके तीरपर ले जानेवाले हमारे तीर्थकर प्रत्येक युगमें 'तीर्थ'का प्रवर्तन करते हैं अर्थात् मोक्षका मार्ग प्रशस्त करते हैं। तीथंकरोंकी इस महिमाको अपने हृदयमें बसाये रखने और अपने श्रद्धानको अक्षुण्ण बनाये रखनेके लिए हमने उन सभी विशेष स्थानोंको 'तीर्थ' कहा जहाँ-जहाँ तीर्थंकरोंके जन्म आदि 'कल्याणक' हुए; जहाँ से केवली भगवान्, महान् आचार्य और साधु सिद्ध' हुए और जहाँ के 'अतिशय' ने श्रद्धालुओंको अधिक श्रद्धायुक्त बनाया, उन्हें धर्म-प्रभावनाके चमत्कारोंसे साक्षात्कार कराया। ऐसे पावन स्थानोंमें से कुछ हैं जो ऐतिहासिक कालके पूर्वसे ही पूजे जाते हैं और जिनका वर्णन पुराण-कथाओंकी परम्परासे पुष्ट हुआ है। अन्य तीर्थोके साथ इतिहासकी कोटिमें आनेवाले तथ्य जुड़ते चले गये हैं और मनुष्यकी कलाने उन्हें अलंकृत किया है। स्थापत्य और मूर्तिकलाने एवं विविध शिल्पकारोंने इन स्थानोंके महत्त्वको बढ़ाया है। अनादि-अनन्त प्रकृतिका मनोरम रूप और वैभव तो प्रायः सभी तीर्थोपर विद्यमान है।
ऐसे सभी तीर्थ-स्थानोंकी वन्दनाका प्रबन्ध और तीर्थोकी सुरक्षाका दायित्व समाजकी जो संस्था अखिल भारतीय स्तरपर वहन करती है, उसे गौरवकी अपेक्षा अपनी सीमाओंका ध्यान अधिक रहता है, और यही ऐसी संस्थाओंके लिए शुभ होता है, यह ज्ञान उन्हें सक्रिय रखता है।
इस समय तीर्थक्षेत्र कमेटीके सामने इन पवित्र स्थानोंकी सुरक्षा, पुनरुद्धार और नव-निर्माणको दिशामें एक बड़ा और व्यापक कार्यक्रम है। इसे पूरा करनेके लिए हमारे प्रत्येक भाई-बहनको यथासामर्थ्य योगदान करनेकी अन्तःप्रेरणा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह प्रेरणा मूर्त रूप ले और यात्री भाई-बहनोंको तीर्थवन्दनाका पूरा सुफल, आनन्द और ज्ञान प्राप्त हो, तीर्थक्षेत्र कमेटीका इस ग्रन्थमालाके प्रकाशनमें यह दृष्टिकोण रहा है।
ग्रन्थ प्रकाशनकी इस परिकल्पनाको पग-पगपर साधनेका सर्वाधिक श्रेय श्रावक-शिरोमणि, दानवीर स्व. साहू शान्तिप्रसादजीको है जिनके सभापतित्व कालमें इस ग्रन्थकी सामग्रीके संकलन और लेखनका कार्य प्रारम्भ हुआ था। इसके प्रथम तीन भागोंका प्रकाशन भी उनके निर्देशन में ही हुआ है । ग्रन्थके प्रस्तुत भाग ४