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________________ परिशिष्ट - १ ३३५ ४ मन्दिर और हैं तथा झालरापाटन और झालावाड़के मध्य सड़क के किनारे नसिया बनी हुई है । इसमें कई प्राचीन प्रतिमाएँ हैं । चित्तौड़गढ़ - यह गढ़ शिल्पकला और स्वाधीनता हेतु लड़नेवाले वीरोंकी शूरता के लिए देश भर में प्रसिद्ध है । कहते हैं, इस किलेका निर्माण चित्रांगद मौर्यने कराया था और उसके नामपर ही यह चित्तौड़गढ़ कहलाया । यह भी कहा जाता है कि सीसोदिया नरेश अजयपालने ९वीं शताब्दी में किसी गुहिलोत नरेश द्वारा बनाये हुए गढ़को ही बढ़ाकर उसे नया रूप प्रदान किया । इस दुर्गंसे अनिन्द्य सुन्दरी पद्मिनी, कृष्णभक्त मीराबाई, अप्रतिम वीर राणा कुम्भ, प्रखर देशभक्त महाराणा प्रताप आदिके चरित जुड़े हुए हैं । दुर्गके भीतर पद्मिनीके महल, विजयस्तम्भ, फतहप्रकाश महल, महाराणा कुम्भाके महल, मीराबाई मन्दिर, नौगजा पीरकी कब्र आदि दर्शनीय हैं । दुर्ग में कई दिगम्बर और श्वेताम्बर मन्दिर बने हुए हैं । साह जीजा द्वारा बनाया हुआ आदिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर और जैन कीर्तिस्तम्भ शिल्प और स्थापत्यका बेजोड़ नमूना है । यह कीर्तिस्तम्भ सात मंजिलका है और ७५ फीट ऊंचा है। ऐसा स्तम्भ सारे भारतमें अन्यत्र नहीं मिलेगा | चित्तौड़ दिल्ली- उदयपुर रेलमार्गपर उदयपुरसे ११७ कि. मी. तथा अजमेर से १८९ कि. मी. है। बमोतर - चित्तौड़गढ़से छोटी सादड़ी होते हुए प्रतापगढ़को जानेवाली सड़कपर श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बमोतर नामक ग्राममें अवस्थित है | यह ग्राम प्रतापगढ़ से उत्तर में ५ कि. मी. दूर है । यहाँ शान्तिनाथ भगवान्की ५ फीट ऊँची कृष्णवर्णवाली पद्मासन प्रतिमा बड़ी अतिशयसम्पन्न है । यह प्रतिमा संवत् १९०२ में प्रतिष्ठित हुई थी । ऋषभदेव – उदयपुरसे सड़क मार्ग से ऋषभदेव ( केशरियाजी ) ६५ कि. मी. है । यह एक सुप्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र है । यहाँ भगवान् ऋषभदेवकी अत्यन्त चमत्कारी प्रतिमा है। इसके दर्शन करने और मनौती मनानेके लिए केवल दिगम्बर जैन ही नहीं, बल्कि श्वेताम्बर जैन, भील और हिन्दू भी बहुत बड़ी संख्यामें आते हैं । यहाँ सभी कार्यं समयबद्ध और नियमानुसार होते हैं । प्रातः अभिषेक समय प्रथम कलशकी बोली होती है । यहाँ सभी मूर्तियां दिगम्बर आम्नायकी हैं । इस मन्दिरके चारों ओर ५२ देहरियाँ बनी हुई हैं । मन्दिरमें काष्ठासंघी और मूलसंघी भट्टारकों की गद्दियाँ बनी हुई हैं । यहाँ जितने धार्मिक उत्सव होते हैं, सभी दिगम्बर आम्नायके अनुसार होते हैं । मन्दिरका मुख्य द्वार अत्यन्त विशाल एवं कलापूर्ण है । इस मन्दिरकी व्यवस्था राजस्थान सरकारका देवस्थान विभाग करता है। यात्रियोंके ठहरने के लिए यहाँ कई धर्मशालाएँ हैं । यहाँ मन्दिर के निकट बाजारके पृष्ठभागमें भट्टारक यशकीर्ति भवनमें चैत्यालय है । मन्दिरसे लगभग एक फर्लांग 'दूर भट्टारक यशकीर्ति जैन गुरुकुल है। उसमें भी जिनालय है तथा यात्रियोंके ठहरनेकी भी सुविधा है । गुरुकुलसे थोड़ी दूरपर पगल्याजी ( चरण ) बने हुए हैं । कहते हैं, यहीं पर भगवान् ऋषभदेवकी मूर्ति भूगभंसे प्रकट हुई थी । नागफणी पार्श्वनाथ – यह अतिशय क्षेत्र है । मन्दिरके नीचे मैरचो नदी बहती है । ४७ सीढ़ियाँ चढ़कर पहाड़ के ऊपर मन्दिर बना हुआ है । मन्दिरमें धरणेन्द्र ललितासन में बैठे हैं । उनके शिरोभागपर सप्तफणमण्डित पार्श्वनाथ भगवान् विराजमान हैं। किंवदन्ती है कि एक भील वृद्धा स्त्रीको जंगलमें यह मूर्ति पड़ो हुई मिली। वह इसकी सेवा करने लगी । वह उस मूर्तिको अपने घर ले जाना चाहती थी । रात्रिमें उसे स्वप्न हुआ कि सरकण्डेकी गाड़ी बनाकर तू मुझे ले चल, किन्तु पीछे मत देखना । उसने सरकण्डेकी गाड़ी बनायी और मूर्तिको ले चली। पीछे बाजोंकी ध्वनि होती आ रही थी । झरनेके पास आकर उसे सन्देह हुआ तो उस भक्त वृद्धाने पीछे
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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