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________________ महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ २९७ १. नेमिनाथ भगवान्-अवगाहना ७ इंच, संवत् १७२७ मार्गशीर्ष सुदी ३ शुक्ले श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे श्री लोहाचार्यान्वये भट्टारकश्रीलक्ष्मीसेनाम्नाये भट्टारकश्रीगुणभद्रोपदेशात्'ज्ञातीय इक्ष्वाकुवंशे उपरोत पाबायक गोत्रे स. क तस्यात्मज स. वासुदेव तस्यात्मज ..... इदं बिम्बं प्रणमति। २. भगवान् पार्श्वनाथ-अवगाहना ७ इंच, संवत् १७५४ वैशाख सुदी १३ शुक्रवार काष्ठासंघे..."प्रतिष्ठा। ३. भगवान् पार्श्वनाथ -- अवगाहना ८ इंच । शके १५९१ फाल्गुण सुदी द्वितीया सेनगणे भ. सोमसेन उपदेशात् श्रीपुर नगरे प्रतिष्ठा। ४. भगवान् पाश्वनाथ-अवगाहना ९ इंच । स्वस्ति श्री संवत् १८११ माघ शुक्ला १० श्री कुन्दकुन्दाम्नाये गुरु ज्ञानसेन उपदेशात् आदिनाथ तत्पुत्र पासोवा सडतवाल ( पुत्र ) कृपाल जन्मनिमित्ते श्रीपुर नगरे अन्तरिक्ष पाश्र्वनाथ पवली जिनालय जीर्णोद्धार कृत्य प्रतिष्ठितमिदं बिम्बं । ५. पाषाणस्तम्भ-श्री अन्तरिक्ष नमः गुरु कुन्दकुन्द नमः संवत् १८११ माघ सुदी १० आदिनाथ पुत्र पासोवा सडतवाल.........."पुत्र कृपाला जमे देंऊल उद्धार केले। ___ इन मूर्ति लेखोंसे भी यह स्पष्ट है कि ये मूर्तियां और जिनालय दिगम्बर सम्प्रदायके हैं। इनके निर्माता, प्रतिष्ठापक, प्रतिष्ठाचार्य आदि सभी दिगम्बरी थे। क्षेत्र-दर्शन पवलीका दिगम्बर जैन मन्दिर-सिरपुर गांवके बाहर अति प्राचीन हेमाडपंथी शैलीका दिगम्बर जैन मन्दिर है। यहींपर राजा ऐल श्रीपालका कुष्ठ रोग यहाँके कुएंके जलमें स्नान करनेसे ठीक हुआ था। इस कुएंमेंसे ही उसने अन्तरिक्ष पाश्र्वनाथकी मूर्ति निकाली थी और उसने यहींपर मन्दिरका निर्माण कराया था। पवलोका यह मन्दिर ऐल श्रीपाल द्वारा बनवाया हुआ है। कहा जाता है कि इस मन्दिरके शिखरमें ऐसी ईंटोंका प्रयोग किया गया था, जो जलमें तैरती हैं। यद्यपि इन ईंटोंका प्रयोग बहुत ही कम हुआ है, अधिकांशतः पाषाणका प्रयोग हुआ है। यह मन्दिर अष्टकोण आकारका है और अत्यन्त कलापूर्ण है। इस पाषाण-मन्दिरके नीचे ईंटोंका चबूतरा बना है। ये ईंटें भी आकारमें बड़ी और अधिक प्राचीन हैं। लगता है, वर्तमान पाषाण मन्दिरके निर्माणके पहले यहां इंटोंका कोई प्राचीन मन्दिर था। मराठी भाषामें पोल शब्दका अर्थ है मिट्री गारेकी सहायताके बिना बनायी गयी पत्थरकी दीवार । लगता है इस पोल शब्दसे ही अपभ्रंश होकर पवली शब्द बन गया और वह मन्दिरका ही नाम हो गया। यह मन्दिर गाँवके बाहर पश्चिमकी ओर वृक्षोंकी पंक्तिके मध्य खड़ा हुआ है। इस मन्दिर में पूर्व, उत्तर और दक्षिणकी ओर पत्थरके द्वार बने हुए हैं। द्वारोंके सिरदलपर पद्मासन दिगम्बर मूर्तियां बनी हुई हैं। इसी प्रकार द्वारोंके दोनों ओर खड्गासन दिगम्बर जैन मर्तियाँ और आम्रपत्रोंसे वेष्टित कलशोंका अंकन बड़ा भव्य प्रतीत होता है। दक्षिण द्वारपर तीर्थंकरोंके जीवनसे सम्बन्धित अत्यन्त कलापूर्ण चित्रांकन है। पूर्वके द्वारपर तीन-तीन पंक्तियोंके दो शिलालेख हैं जिन्हें इस प्रकार पढ़ा जा सका है ऊपरका शिलालेख-शाक ९०९.......पंच......मूलसंघे......(बलात्कार) भट्टारक श्री... जि...न....रा (ज्ञी) रा (जा) मति श्री भूपालभूप श्री पाश्वनाथ बि......(राष्ट्रकूटसंघ)....श्री जे (जि) न(प्र) तिष्ठित" (इन्द्र) राज (हने) श्रीपाल इह श्रीरायतनं । ३८
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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