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प्राक्कथन
बाह्यशुद्धि नहीं है, वह हमारा साध्य नहीं है. न हमारा लक्ष्य ही बाह्यशुद्धि मात्र है। वह तो हम घरपर भी कर लेते हैं । तीर्थ यात्राका ध्येय आत्म-शुद्धि है, आत्माकी ओर उन्मुखता, परसे निवृत्ति और आत्म-प्रवृत्ति हमारा ध्येय है । बाह्यशुद्धि तो केवल साधन है और वह भी एक सीमा तक । तीर्थ यात्रा करने मात्रसे ही आत्म-शुद्धि नहीं हो जाती। तीर्थ यात्रा तो आत्म-शुद्धिका एक साधन है। तीर्थपर जाकर वीतराग मुनियों और तीर्थंकरोंके पावन चरित्रका स्मरण करके हम उनकी उस साधनापर विचार करें, जिसके द्वारा उन्होंने शरीर-शुद्धिकी चिन्ता छोड़कर आत्माको कर्म-मलसे शुद्ध किया। यह विचार करके हम भी वैसी साधनाका संकल्प लें और उसकी ओर उन्मुख होकर वैसा प्रयत्न करें।
कुछ लोगोंको ऐसी धारणा बन गयी है कि जिसने तीर्थकी जितनी अधिक बार वन्दना की अथवा किसी स्तोत्रका जितना अधिक बार पाठ किया या भगवान्की पूजामें जितना अधिक समय लगाया, उतना अधिक धर्म किया। ऐसी धारणा पुण्य और धर्मको एक माननेकी परम्परासे पैदा हुई है। जिस क्रियाका आत्म-शुद्धि, आत्मोन्मुखतासे कोई नाता नहीं, वह क्रिया पुण्यदायक और पुण्यवर्द्धक हो सकती है, वह भी तब, जब मनमें शुभ भाव हों, शुभ राग हों ।
पुण्य या शुभ राग साधन है, साध्य नहीं । पुण्य बाह्य साधन तो जुटा सकता है, आत्माकी विशुद्धि
सकता। आत्माको विशुद्धि आत्माके निज पुरुषार्थ से होगी और वह शुभ-अशुभ दोनों रागोंके निरोधसे होगी। तीर्थ-भूमियाँ हमारे लिए ऐसे साधन और अवसर प्रस्तुत करती हैं। वहाँ जाकर भक्त जन उस भूमिसे सम्बन्धित महापुरुषका स्मरण, स्तवन और पूजन करते हैं तथा उनके चरित्रसे प्रेरणा लेकर अपनी आत्माकी ओर उन्मुख होते हैं । पुण्यकी प्रक्रिया सरल है, आत्म-शुद्धिकी प्रक्रिया समझने में भी कठिन है और करने में भी।
किन्तु एक बात स्मरण रखनेकी है। भक्त जन घाटे में नहीं रहता। वह पाप और अशुभ संकल्पविकल्पोंको छोड़कर तीर्थ-यात्राके शुभ भावों में लीन रहता है। वह अपना समय तीर्थ-वन्दना, भगवान्का पूजन, स्तुति आदिमें व्यतीत करता है । इससे वह पुण्य संचय करता है और पापोंसे बचता है। जब वह आत्माकी ओर उन्मुख होता है तो कर्मों का क्षय करता है, आत्म-विशुद्धि करता है। अर्थात् स्वकी ओर उपयोग जाता है तो असंख्यात गुनी कर्म-निर्जरा करता है और पर (भगवान् आदि) की ओर उपयोग जाता है तो पुण्यानुबन्धी पुण्य संचय करता है। यही है तीर्थ-यात्राका उद्देश्य और तीर्थ-यात्राका वास्तविक लाभ ।
तीर्थ यात्रासे आत्म-शुद्धि होती है, इस सम्बन्धमें श्री चामुण्डराय 'चारित्रसार' में कहते हैं
तत्रात्मनो विशुद्धध्यानजलप्रक्षालितकर्ममलकलङ्कस्य स्वात्मन्यवस्थानं लोकोत्तरशुचित्वं, तत्साधनानि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रतपांसि तद्वन्तश्च साधवस्तदधिष्ठानानि च निर्वाणभूम्यादिकानि । तत्प्राप्त्युपायत्वाच्छुचिव्यपदेशमर्हन्ति ।
(अशुचि अनुप्रेक्षा) अर्थात विशुद्ध ध्यानरूपी जलसे कर्म-मलको धोकर आत्मामें स्थित होनेको आत्माकी विशुद्धि कहते हैं । यह विशुद्धि अलौकिक होती है। आत्म-विशुद्धिके लिए सम्यग्दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र, सम्यक्-तप और इनसे युक्त साधु और उनके स्थान निर्वाणभूमि आदि साधन हैं। ये सब आत्म-शुद्धि प्राप्त करनेके उपाय हैं। इसलिए इन्हें भी पवित्र कहते हैं ।
गोम्मटसारमें आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है"क्षेत्रमंगलमूर्जयन्तादिकमहंदादीनां निष्क्रमणकेवलज्ञानादिगुणोत्पत्तिस्थानम् ।" अर्थात् निष्क्रमण ( दीक्षा ) और केवल-ज्ञानके स्थान आत्मगुणोंकी प्राप्तिके साधन हैं।