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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
ऐसे वे तीर्थंकर भगवान् जिस नगरमें जन्म लेते हैं, वह नगर उनकी चरण-धूलिसे पवित्र हो जाता है। जहाँ वे दीक्षा लेते हैं, उस स्थानका कण-कण उनके विराग रंजित कठोर तप और आत्मसाधनासे शुचिताको प्राप्त हो जाता है । जिस स्थानपर उन्हें केवलज्ञान होता है, वहीं देव समवसरणकी रचना करते हैं, जहाँ भगवान्की दिव्य ध्वनि प्रकट होकर धर्मचक्रका प्रवर्तन होता है और अनेक भव्य जीव संयम ग्रहण करके आत्म-कल्याण करते हैं, वहाँ तो कल्याणका आकाशचुम्बी मानस्तम्भ ही गड़ जाता है, जो संसारके प्राणियोंको आमन्त्रण देता है-'आओ और अपना कल्याण करो।' इसी प्रकार जहाँ तीर्थंकर देव शेष अघातिया कर्मोंका विनाश करके निरंजन परमात्म दशाको प्राप्त होते हैं, वह तो शान्ति और कल्याणका ऐसा अजस्र स्रोत बन जाता है, जहाँ भक्ति-भावसे जानेवालोंको अवश्य शान्ति मिलती है और अवश्य ही उनका कल्याण होता है । निर्वाण ही तो परम पुरुषार्थ है, जिसके कारण अन्य कल्याणकोंका भी मूल्य और महत्त्व है।
यह माहात्म्य अन्य मुनियोंके निर्वाण-स्थानका भी है । यह माहात्म्य उस स्थानका नहीं है, किन्तु उन तीर्थकर प्रभुका है या उन निष्काम तपस्वी मुनिराजोंका है, जिनके अन्तरमें आत्यन्तिक शुद्धि प्रकट हुई, जिनकी आत्मा जन्म-मरणसे मुक्त होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो चुकी है। इसीलिए तो आचार्य शुभचन्द्रने ज्ञानार्णवमें कहा है
सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते ।
कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धिः प्रजायते ।। सिद्धक्षेत्र महान् तीर्थ होते हैं । यहाँपर महापुरुषका निर्वाण हुआ है । यह क्षेत्र कल्याणदायक है तथा पुण्यवर्द्धक होता है। यहाँ आकर यदि ध्यान किया जाये तो ध्यानको सिद्धि हो जाती है। जिसको ध्यानसिद्धि हो गयी, उसे आत्म-सिद्धि होनेमें विलम्ब नहीं लगता।
तीर्थ-भूमियोंका माहात्म्य वस्तुतः यही है कि वहाँ जानेपर मनुष्योंकी प्रवृत्ति संसारकी चिन्ताओंसे मुक्त होकर उस महापुरुषकी भक्तिसे आत्मकल्याणकी ओर होती है। घरपर मनुष्यको नाना प्रकारको सांसारिक चिन्ताएँ और आकूलताएँ रहती है। उसे घरपर आत्मकल्याणके लिए निराकुल अवकाश नहीं मिल पाता । तीर्थ-स्थान प्रशान्त स्थानोंपर होते हैं। प्रायः तो वे पर्वतोपर या एकान्त वनोंमें नगरोंके कोलाहलसे दूर होते हैं । फिर वहाँके वातावरण में भी प्रेरणाके बीज छितराये होते हैं। अतः मनष्यका मन वहाँ शान्त. निराकुल और निश्चिन्त होकर भगवान्की भक्ति और आत्म-साधनामें लगता है। संक्षेपमें, तीर्थक्षेत्रोंका माहात्म्य इन शब्दोंमें कहा जा सकता है
. श्रीतीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति तीर्थेषु विभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति ।
तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः पूज्या भवन्ति जगदीशमथाश्रयन्तः ॥ अहा! तीर्थभमिके मार्गकी रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आश्रयसे मनुष्य रजरहित अर्थात कर्म मल रहित हो जाता है। तीर्थोपर भ्रमण करनेसे अर्थात् यात्रा करनेसे संसारका भ्रमण छूट जाता है। तीर्थपर धन व्यय करनेसे अविनाशी सम्पदा मिलती है । और जो तीर्थपर जाकर भगवान्की शरण ग्रहण कर लेते हैं अर्थात भगवान के मार्गको जीवनमें उतार लेते हैं, वे जगत्पूज्य हो जाते है।
निराकुल और
निजा सकता है..
विभ्रमणतो न भव
तीर्थ यात्राका उद्देश्य
तीर्थ-यात्राका उद्देश्य यदि एक शब्दमें प्रकट किया जाये तो वह है आत्म-विशुद्धि । शरीरकी शुद्धि तेल-साबुन और अन्य प्रसाधनोंसे होती है। वाणोकी शुद्धि लवंग, इलायची, सौंफ आदिसे होती है, ऐसी लोक-मान्यता है। कुछ लोगोंकी मान्यता है कि पवित्र नदियों, सागरों और भगवान के नाम संकीर्तनसे सर्वांग विशुद्धि होती है । कुछ मानते हैं कि तीर्थ-क्षेत्रकी यात्रा करने मात्रसे पापोंका क्षय और पुण्यका संग्रह हो जाता है । किन्तु यह बहिर्दृष्टि है। बहिर्दृष्टि अर्थात् बाहरी साधनोंकी ओर उन्मुखता। किन्तु तीर्थ-यात्राका उद्देश्य