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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ यद्यपि अब जैन तथा जैनेतर विद्वानोंने बसाढ ( वैशाली ) को एकमतसे भगवान् महवीरकी जन्मभूमि मान लिया है। जैन समाजने भी इस मान्यताको स्वीकार कर लिया है। किन्तु शताब्दियोंसे जिस कुण्डलपुरकी एक जैन तीर्थक रूपमें मान्यता रही है, उसको भविष्यमें भी तीर्थ माना जाता रहेगा। वशालीका पुनरुद्धार ऊपर बताया जा चुका है कि वैशालीका अन्तिम विनाश ईसाकी छठी शताब्दीमें हुआ था। जब सातवीं शताब्दीमें चीनी यात्री ह्वेन्त्सांग आया था, उस समय उसे वैशाली, श्रावस्ती और पाटलिपुत्र तीनों प्राचीन नगर ध्वस्त दशामें मिले थे। ईसा पूर्व छठी शताब्दीमें ये तीनों ही राजधानियाँ थीं तथा तीनों ही अत्यन्त समृद्ध और शक्तिशाली थीं। इनके नष्ट होनेसे पाटलिपुत्रसे वैशाली होकर श्रावस्तीको नदी-मागंसे होनेवाला व्यापार समाप्त हो गया। इससे यहाँके लिच्छवी बाहर चले गये। वे आवास और आजीविकाकी खोज में नेपाल-वर्मा, तिब्बत और लद्दाख तक जा पहुँचे। इन देशोंमें जाकर वे चुपचाप नहीं बैठ गये। नेपालमें लिच्छवियोंने ई. स. ८७९-८८० तक शासन किया। वर्माके अराकान प्रदेशमें किसी चन्द्रवंशी राजाने सन् ७८९ में वैथाली ( वैशाली) का निर्माण किया। तिब्बत और लद्दाखके राजा अपने-आपको लिच्छवियोंका वंशज बताते हैं। बहुत-से जैन अन्य प्रदेशोंमें चले गये। कुछ जैन दक्षिण बिहारमें चले गये। ऐसा लगता है, जैनोंका वैशालीके साथ सम्पर्क सम्भवतः १३-१४वीं शताब्दी तक ही थोड़ा-बहुत रहा। उसके बाद उनका रहा-सहा सम्पर्क भी समाप्त हो गया। इस बीच जैनोंके हटनेसे बौद्धों और ब्राह्मणोंके प्रभाव हो गयी। दक्षिण बिहारमें बौद्धोंके चार विश्व-विद्यालय बहत प्रसिद्ध थे-नालन्दा, विक्रमशिला, उद्यन्तपूर और वज्रासन । वैशालीमें तो बौद्धोंका प्रभाव पहले भी नहीं था। किन्तु इन विश्वविद्यालयोंमें बौद्धधर्मके प्रकाण्ड विद्वान् रहते थे, जिनकी प्रतिभा और प्रभावके कारण और पालनरेशोंके संरक्षणके कारण बौद्धधर्म बिहार-बंगालमें उस समय टिक सका । उन विद्वानोंमें नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मपाल, शीलभद्र, धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित आदि थे। इधर जैनोंका प्रभाव घट जानेके कारण ब्राह्मणोंका उत्तर बिहारमें-विशेषतः मिथिलामें प्रभाव बढ़ा। इस कालमें न्याय और मीमांसा दर्शनके कई प्रभावशाली विद्वान् यहाँ हए। जैसे उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य, कुमारिल भट्ट, मण्डन मिश्र, प्रभाकर, मुरारी मिश्र आदि। इन धर्मनेताओंने जैनधर्मके विरुद्ध वातावरण बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। तभी राजनैतिक स्थिति अत्यन्त विषम हो गयी। तुरुष्क आततायियोंके आतंकके कारण इधर भगदड़ मच गयी । सन् १३२४ में तुर्क सुल्तान गियासुद्दीन तुगलकने तिरहुतको रौंद दिया। उसके आक्रमणके बाद यहाँ अनेक मुस्लिम मौलवी आये और उन्होंने इस्लामके प्रचार-प्रसारके लिए जिहाद बोल दिया। शेख महम्मद काजी ( सन १४३४ से १४९५ ) ने वैशालीमें ही अड़ा जमा लिया। इससे रहा-सहा व्यापार भी समाप्त हो गया और जैन यहाँसे बिलकुल उखड़ गये। धीरेधीरे जैन अपने इस पवित्र तीर्थको बिलकुल ही भूल गये। १४वीं शताब्दीके यति मदनकीर्तिने १. Ancient Nepal, by D. R. Regmi, ( Calcutta 1960). २. R.C. MajumdarVaishali and Greater India, Homage, pp. 4.3-44. ३. Cunningham-Ancient Geography of India, Calcutta-ed. 1924, p. 517.
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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