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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ रख सका और वे स्वतन्त्र हो गये। इसके पश्चात् वैशाली यद्यपि अपने पूर्व गौरव और महत्त्वको प्राप्त नहीं कर सकी, किन्तु वह स्वतन्त्र हो गयी और अपनी स्वतन्त्रताको उसने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी तक बनाये रखा। मौर्य शासनके प्रारम्भिक वर्षों में ही सम्राट चन्द्रगुप्तने इन गणराज्योंको समाप्त कर दिया।
मौर्य साम्राज्यकी स्थापनासे पूर्व भारतमें अनेक लोकतन्त्रीय राज्य थे। यूनानी दूत मेगस्थनीजका कहना है कि उसके समयमें अधिकांश नगरोंने लोकतान्त्रिक व्यवस्था अपना रखी थी। सिन्धु तटपर अश्वक ( अस्यसिओय और अस्सेकेनाय ), मालव ( मल्लोई ), क्षुद्रक (आक्सीड्रकेयी), आर्जुनायन ( अग्गलस्सोई ) आदि अनेक गणराज्य थे जिन्हें चन्द्रगुप्तने अपने साम्राज्यमें मिला लिया। वस्तुतः मौर्य साम्राज्यकी स्थापना इन लोकराज्योंके लिए विनाशकारी सिद्ध हुई।
मौर्य साम्राज्यके पतनके बाद कुछ नये-पुराने लोकराज्योंका उदय हुआ, जिन्हें गुप्तवंशके सम्राट
प्तिने ईसाकी चौथी शताब्दीमें सदाके लिए समाप्त कर दिया। निश्चय ही समुद्रगुप्तके काल तक वैशाली गणराज्यका अस्तित्व था। वैशालीके लिच्छवियोंकी सहायतासे चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने गुप्त साम्राज्यकी स्थापना की थी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि लिच्छवी इस कालमें भी काफी शक्ति-सम्पन्न थे।
किन्तु समुद्रगुप्तने जिस प्रकार गंगा-सिन्धुके काँठेमें बसे हुए यौधेय, आर्जुनायन, मालव आदि गणराज्योंको नष्ट कर दिया, उसी प्रकार पूर्वी भारतके वैशाली, विदेह आदि गणराज्योंको सदाके लिए समाप्त कर दिया। इतिहासका यह कैसा क्रूर मजाक है कि शिशुनागवंशी अजातशत्रु भी वैशालीका दौहित्र था और गुप्तवंशी समुद्रगुप्त भी वैशालीकी पुत्रीका पुत्र था। पर इन दौहित्रोंने ही अपनी ननिहालका क्रूर विनाश किया।
ऐसा लगता है कि समुद्रगुप्तने वैशालीको बिलकुल बरबाद कर दिया, क्योंकि पांचवीं-छठी शताब्दीके बाद वैशाली राजनैतिक क्षितिजसे सदाके लिए अस्त हो गयी। वह खण्डहरों और मलवेका ढेर बन गयी। चीनी यात्री हेन्त्सांग सातवीं शताब्दीमें वैशालीमें गया। किन्त उसे समृद्ध वैशालीके स्थानपर भग्नावशेष मिले। थोड़े-बहुत घर बचे हुए थे। उसने लिखा है'निर्ग्रन्थोंके अनुयायी बहुसंख्यामें मिले।' ऐसे भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि पालवंशी राजाओंके शासन-काल ( ई. स. ७५०-१२०० ) में यहाँ जैन तीर्थंकरोंकी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई। तिब्बतका एक बौद्ध भिक्षु धर्मस्वामिन ( ई. स. ११९७-१२६४ ) ने भारतका भ्रमण सन् १२३४-१२३६ तक किया। १२३४ में वह वैशालीमें पहुंचा था। किन्तु उसने यहाँ जैनोंका कोई उल्लेख नहीं किया। उसके पूछनेपर लोगोंने उसे बताया कि 'तुरुष्क सेनाके आक्रमणकी अफवाहोंके कारण यहाँके निवासी भाग गये हैं।' सम्भवतः इस कालमें कोई जैन यहाँ नहीं रहा था। ह्वेन्त्सांगके काल में श्रावस्ती और पाटलिपुत्र भी खण्डहर हो गये थे। श्रावस्तीसे पाटलिपुत्रको जो व्यापार-मार्ग जाता था, उसीपर वैशाली अवस्थित थी। इन नगरोंके विनाशका अर्थ है-इन व्यापारिक केन्द्रोंका विनाश हो गया या किया गया। सम्भवतः इन्हीं परिस्थितियोंमें जैन लोग वैशालीको छोड़ गये। कुछ समय बाद वे भगवान् महावीर की जन्मभूमिको भूल गये, वहाँ आना-जाना भी बन्द हो गया और नये स्थानोंपर पुराने नामसे नये तीर्थकी स्थापना हो गयी।
__दिगम्बर सम्प्रदायमें नये तीर्थका नाम 'कुण्डलपुर' रख लिया गया। इस भूल-भ्रान्तिको साहित्यिक समर्थन भी मिल गया, जिससे भ्रान्तिके परिमार्जनकी आवश्यकताका अनुभव नहीं हो सका। बौद्ध, श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्पूर्ण साहित्यमें महावीरकी जन्म-नगरीका नाम
भाग २-६