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बिहार-बंगाल- उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं
गया के पास बरावर पहाड़ीपर ४ गुफाएँ हैं और उससे एक मील दूर नागार्जुनी पहाड़ीपर तीन गुफाएँ हैं । बरावर पहाड़ीकी दो गुफाएँ अशोकने अपने राज्यके १२वें वर्ष में और तीसरी १९ वें वर्ष में निर्माण करायीं । नागार्जुनीकी तीनों गुफाओंका निर्माण अशोक के पौत्र दशरथने कराया था। इन सातों गुफाओंका निर्माण आजीवक साधुओंके निमित्त कराया गया था । कुछ विद्वानोंकी मान्यता है कि आजीवक सम्प्रदाय जैनधर्मके अति निकट था, उस सम्प्रदाय के संस्थापक मंखलि गोशाल पहले भगवान् महावीरके शिष्य थे । बादमें सैद्धान्तिक मतभेदके कारण वे पृथक् हो गये और उन्होंने अपना नया सम्प्रदाय निकाल लिया । यह सम्प्रदाय केवल दो-तीन शताब्दी तके चला, फिर जैनसंघमें विलीन हो गया । इन कारणोंसे बरावर और नागार्जुनीकी गुफाओंको जैनगुफा मान लेना चाहिए ।
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tani विहार गुफाओंमें भी होते थे और पृथक् भवनोंके रूपमें भी होते थे । कौशाम्बीके उत्खननके फलस्वरूप एक ऐसा विहार निकला है जो आजीवकों का कहा जाता है तथा जिसमें पाँच हजार आजीवक साधु रहते थे । बरावर और नागार्जुनीकी गुफाएँ भी उनके विहार ही थे । खण्डगिरि - उदयगिरिकी गुफाएँ, जिनकी कुल संख्या ११७ है, ई. पू. पहली शताब्दी के अन्तिम चरणमें बनी थीं। इनमें से कुछ गुफाएँ बादकी भी हैं । इन गुफाओं में उदयगिरिकी हाथीगुफा में सम्राट् खारवेल द्वारा उत्कीर्ण प्राकृत भाषाका १७ पंक्तियोंका एक लेख है । सम्राट् अशोकके स्तम्भ-लेखोंके पश्चात् यही लेख ऐतिहासिक महत्त्वका है। इसमें कलिंग सम्राट् खारवेल - के बाल्यकाल एवं उनके राज्यके १३ वर्षोंका व्यवस्थित वर्णन है । खारवेलने अपने राज्यके द्वितीय वर्ष में सातकर्णिको पराजित किया, फिर कृष्णा नदीके तटपर स्थित अशिक नगरपर अधिकार किया । चतुर्थ वर्ष में विन्ध्याचलमें बसे हुए अरकडपुरके विद्याधरोंको जीतकर रथिक और भोजक लोगों को अपने आधीन किया। वे आठवें वर्ष में मगधपर आक्रमण करके गोरथगिरि तक पहुँच गये । गोरथगिरि और राजगृहके घेरेकी बात सुनते ही यवनराज देमित्रियस अपनी सेना सहित मथुरा छोड़कर भाग गया । दसवें वर्ष में उत्तरापथको जीता । ग्यारहवें वर्ष में उन्होंने पुनः मगधपर आक्रमण किया और मगधनरेश बृहस्पतिमित्रको अपने चरणोमें झुकाया, इस प्रकार वे अधिकांश भारतको जीतकर चक्रवर्ती सम्राट् बन गये ।
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इस शिलालेखसे एक महत्त्वपूर्ण बातपर प्रकाश पड़ता है। मगध-विजयके फलस्वरूप उन्होंने अंग और मगधकी मूल्यवान भेंट लेकर राजधानीको प्रयाण किया था। इन भेंटोंमें कलिंगके राजचिह्नोंके अलावा 'कलिंग - जिन' ( ऋषभदेव ) की वह मूर्ति भी थी जिसको नन्दराज ( महापद्मनन्द ) कलिंगसे मगध ले आया था । खारवेलने इस अतिशय सम्पन्न मूर्तिको कलिंग वापस लाकर बड़े उत्सवके साथ विराजमान किया था और इस घटनाकी स्मृतिमें उन्होंने एक विजय स्तम्भ भी बनवाया था ।
इस घटना से कई महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । एक तो यह कि नन्द-काल अर्थात् ईसा पूर्व पाँचवीं चौथी शताब्दी में भी जैन मूर्तियाँ थीं। दूसरे 'कलिंग - जिन' इस नामसे ही ज्ञात होता है कि इस कालमें एक प्रसिद्ध जैन मन्दिर और मूर्ति थी जो उस प्रदेश भर में लोक पूजित थी । तीसरे नन्दराज इस मूर्तिको कलिंगसे ले गया, वह अवश्य जैन धर्मावलम्बी रहा होगा और इस मूर्ति के लिए उसने अपने यहाँ मन्दिर भी बनवाया होगा । चौथे यह कि उस मूर्ति के प्रति कलिंगवासियोंकी श्रद्धा दो-तीन शताब्दी तक उसके अभाव में भी बनी रही और अवसर मिलते ही उनका सम्राट् जब उसे वापस लेकर कलिंग पहुँचा तो सारे कलिंगवासियोंने उस मूर्तिके स्वागतमें राष्ट्रीय उत्सव मनाया।
भाग २- २