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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सामग्री चारों ओर बिखरी पड़ी हैं, मुख्यतः यह जैनोंसे सम्बन्धित है। यहाँकी कुछ प्रमुख कलासामग्री एकत्रित करके एक छप्पर के नोचे जमाकर दी गयी है । यह छप्पर किसी प्राचीन मन्दिरके अवशेषोंके ऊपर बना हुआ है। उस मन्दिरकी नींव वहाँ अबतक मौजूद है । यहाँ सबका ध्यान आकृष्ट करनेवाली एक विशाल मूर्ति है। यह मूर्ति ऋषभदेव तीर्थंकरकी है। यह नौ फुट ऊँची है और श्यामवर्णकी है। अजैन जनता इसे 'भैरव देव' मानकर पूजती है। और भी कई मूर्तियाँ हैं, जिनपर तीर्थंकरोंके चिह्न बने हुए हैं। दो छोटी मूर्तियोंपर बैलके चिह्न अंकित हैं। एक छोटी मूर्तिपर कमलका चिह्न बना है। एक चैत्य है, जिसके चारों ओर क्रमशः महावीर, शान्तिनाथ, ऋषभदेव और कुन्थुनाथ तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ हैं। इन चारों मूर्तियोंके ऊपर दोनों ओर उड़ते हुए हंस चोंचमें पुष्पमालाएँ लिये हुए दिखलाई पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त एक और चैत्य है । बड़ी मूर्ति जिस मन्दिरकी थी, वह मन्दिर बड़ा विशाल रहा होगा, और लगता है, उसका मुख पश्चिमको ओर होगा।
बड़ी मूर्ति पैरों और जाँघोंपर खण्डित है। कहा जाता है कि जब मुसलमानोंने इस देशको जीता था तो उन्होंने तलवारोंसे इस मूर्तिको तोड़ा था। ये निशान उसीके हैं।
इसके पास ही सन् १८७१-७२ में एक टोलेकी खुदाई करायी गयी थी। उसमें पाँच जैन कला-वस्तु निकलीं। ईंटोंका एक पूर्वाभिमुख मन्दिर अब भी भग्न दशामें खड़ा हुआ है। इसके उत्तरमें चार पाषाण मन्दिर एक पंक्तिमें हैं। जब ये बने थे, तब इनमें केवल गर्भ-गृह ही था, किन्तु बादमें मण्डप बना दिये गये, जो बादमें टूट गये । ये सब उत्तराभिमुखी हैं।
इनके उत्तर में पाँच मन्दिर हैं । ये पंक्तिबद्ध न होकर अक्रम से हैं। इनमें दो मन्दिर पत्थरोंके हैं और तीन मन्दिर ईंटोंके हैं। ईंटोंके मन्दिर टूटे पड़े हैं । पत्थरोंके मन्दिरोंमें एक साबुत है, दूसरा भग्न हो चुका है।
इनके उत्तरमें चार मन्दिरोंकी एक पंक्ति है। इनमें तीन पाषाणके हैं और एक ईंटोंका है। सभी भग्न हैं। ईटोंके मन्दिरके पूर्व में दो टीले हैं जो ईंटोंके दो मन्दिरोंके अवशेषोंसे बन गये हैं। मन्दिरोंकी इस पंक्तिके दक्षिणमें तीन पाषाण मन्दिरोंकी पंक्ति है, किन्तु वे सब भग्न हैं।
ये सब लगभग तीन-साढ़े तीन सौ वर्गफुटमें फैले हुए हैं।
मन्दिरोंके निकट कई तालाब हैं । एकमें पत्थरके घाट बने हुए हैं। लेकिन ये घाट टूट-फूट चुके हैं। मन्दिरोंमें जो पत्थर लगाये गये हैं, वे बलुए फषाण हैं। वे बिना चूनेके जोड़े गये हैं। कारीगरी सादा, किन्तु सुन्दर है। मण्डप या महामण्डपमें जो स्तम्भ काममें लाये गये हैं; वे बिलकुल सादा हैं।
इस प्रकार लगता है, यहाँ पन्द्रह-सोलह या इससे भी अधिक मन्दिर थे। इससे सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कभी यह स्थान उन जैनोंका, जिन्हें आज सराक कहा जाता है, बहुत बड़ा केन्द्र रहा होगा और यहाँ उस समय जैनोंकी संख्या बहुत रही होगी। यहाँ जो सामग्री उपलब्ध हुई है, वह ईसा पूर्वसे लेकर गुप्त काल तककी है। इस सम्भावनासे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इतनी बड़ी संख्यामें यहाँ मन्दिरोंका निर्माण इसलिए किया गया क्योंकि यह एक तीर्थक्षेत्र था। सम्भवतः भगवान् महावीर विहार करते हुए यहाँ पधारे थे और उनके उपदेशसे प्रभावित होकर अनेक व्यक्तियोंने जैनधर्मको अंगीकार किया था। भगवान् महावीरसे पहले भगवान् पार्श्वनाथ भी यहाँ पधारे थे। इन तीर्थंकरोंकी किसी विशेष घटनाकी स्मृति स्वरूप इन मन्दिरोंका निर्माण किया गया।