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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ
१९७ होनेमें जैन धर्मने कोई बाधा नहीं डाली । जैन धर्म राष्ट्रको प्रचलित रीति रिवाजोंमें कभी बाधक नहीं बना।
- सम्भवतः प्राचीनकालमें राज्याभिषेकके लिए चौबीस वर्षकी आयुको एक आवश्यक शर्त माना जाता था । इसीलिए खारबेलके सोलह वर्षकी अवस्थामें युवराज पदपर अभिषिक्त होनेपर भी उनका राज्यारोहण चौबीस वर्षकी आय पूर्ण होनेपर ही कर पाया। सम्भवतः इसी नियमके अनुसार अशोकका भी उसके राज्य-प्राप्तिके तीन-चार वर्ष पश्चात् ही राज्याभिषेक हो सका था। खारबेलको धार्मिक नीति
हाथीगुम्फा अभिलेख णमोकार मन्त्रसे प्रारम्भ होता है। इसलिए इसमें तो सन्देह नहीं है कि खारबेल जैन धर्मका अनुयायी था। खारबेल ही नहीं, उसके सभी परिवारीजन जैन थे। उदाहरणतः खारबेलकी पटरानी द्वारा निर्मित मंचपुरी गुफामें लेख है कि अर्हन्तोंकी प्रसन्नताके लिए यह गुफा श्रमणोंके लिए समर्पित की गयी। इसी प्रकार खारबेल शासनके तेरहवें वर्षका विवरण चौदहवीं पंक्तिमें बताया गया है, जिसके अनुसार कुमारी पर्वतपर अर्हन्तों अथवा जैन साधुओंके विश्रामके लिए गुफाओंका निर्माण किया गया।
ई पू. चतुर्थ शताब्दीमें जब नन्दराज महापद्मने मगधपर आक्रमण किया तो वह कलिंग जिन प्रतिमा को उठा ले गया। उस मूर्ति-अपहरणकाण्डसे वह कलिंगकी धार्मिक भावनाओंको दबाना चाहता था। सारी जनतामें व्यापक क्षोभ फैल गया। आखिर खारबेलने अपने राज्य शासनके बारहवें वर्ष मगधपर आक्रमण कर दिया और वहाँके नरेश वहसतिमित्रको हराकर जनताको भावनाकी पूर्ति की तथा कलिगजिनको लाकर उसे पुनः प्रतिष्ठित कराया। 'कलिंग-जिन' की इस मूर्तिको न केवल राज्य-परिवारकी श्रद्धा और सम्मान मिला था, अपितु सर्व साधारणकी भी श्रद्धा इसके प्रति थी। एक प्रकारसे कलिग-जिन-मूर्ति कलिंगकी प्रजाके लिए एकताकी एक सुदृढ़ कड़ी बन गयी थी।
उस समय कलिंगमें अन्य धर्म और उनके धर्मायतन भी थे किन्तु खारबेलने प्रियदर्शी अशोकके समान सभी धर्मों और विश्वासोंका समान सम्मान करनेकी घोषणा की थी। उसने अपने शिलालेखकी पंक्ति १७ में अपने आपको सर्व पाषण्ड पूजक और सर्व देवायतन-संस्कारकारक लिखा है। अर्थात् उसने सभी धर्मोंके मन्दिरोंका जीर्णोद्धार किया था। उसका राज्याभिषेक वैदिक रीतिसे हुआ। उसने शासनके लिए वे ही सिद्धान्त और तरीके अपनाये, जो ब्राह्मण ग्रन्थोंमें निर्दिष्ट हैं। सैनिक अभियान और दिग्विजयके लिए हुए युद्धोंमें जैनधर्मने कभी बाधा खड़ी नहीं की। वस्तुतः जैन धर्म अत्यन्त उदार और सभी परिस्थितियोंसे समझौता करनेवाला धर्म है। उसके यहाँ जैन निर्ग्रन्थ भी आहार लेते थे और ब्राह्मण ऋषि भी। ब्राह्मणोंको दान आदिसे सम्मानित किया जाता था। इन सब बातोंके उल्लेख करनेसे हमारा तात्पर्य यह है कि इहलौकिक मामलोंमें वह सभी धर्मोके प्रति उदार और सहिष्णु था और पारलौकिक मामलोंमें वह निष्ठावान् जैन था।
वह दूसरोंके धर्ममें दखल नहीं देता था, बाधा नहीं डालता था, अपने धर्म और विचारोंको दूसरोंके ऊपर थोपने या बलाघात करनेका प्रयत्न नहीं करता था। उसने कभी सब धर्मोको एक मंचपर लानेका भी प्रयत्न नहीं किया। यद्यपि वह अपने आपको धर्मराज कहता है किन्तु उसने कभी अशोक और अकबरके समान धार्मिक नेता बननेका प्रयत्न नहीं किया। उसके राज्यमें सभीको अपने धर्म, विश्वास और मान्यताको माननेकी पूर्ण स्वतन्त्रता थी।