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________________ १५२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस निकृष्ट तिर्यंच योनिमें पड़ा हुआ है। तू कषाय छोड़कर आत्म-कल्याण कर।" मुनिराजका उपदेश गजराजके हृदयमें पैठ गया। उसने अणुव्रतोंका नियम ले लिया। जीवन सात्त्विक बने गया। यही हाथीका जीव आगे जाकर कठोर साधनासे तेईसवाँ तीर्थंकर बना । अस्तु! मुनिराज अरविन्द संघ सहित आगे बढ़ गये और सम्मेदशिखर पहुँचकर उन्होंने भक्तिभाव सहित उसकी वन्दना की। उन्होंने मोहका क्षय कर घातिया कर्मोंका नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त किया तथा वहींसे मोक्ष प्राप्त किया । कवि महाचन्द्रने अपभ्रंश भाषाके 'संतिणाह चरिउ ( रचना काल सं. १५८७ ) में सारंग साहूका परिचय देते हुए उनकी सम्मेदशिखर यात्राका वर्णन किया है "भोयउ सुउ वीयउ गुणगण ज्यउ णाणचंद्र पभणिज्जइ । तहु भामिणि गुण गण रामिणि सउराजही कहिज्जइ ॥२॥ तहु तिण्णि अंगसू तिण्णि रयण णं तिण्णि लोय ते सुद्ध वयण । पढ़मउ सम्मेय वि जत्त करणु सारंग वि णामे सुद्ध करणु ॥३॥ इसका आशय यह है कि भोजराजके पुत्र ज्ञानचन्दकी पत्नीका नाम 'सउराजही' था जो अनेक गुणोंसे विभूषित थी। उसके तीन पुत्र हुए। पहला पुत्र सारंग साहू था, जिसने सम्मेदशिखरकी यात्रा को थी। उसकी पत्नीका नाम 'तिलोकाही' था। भट्टारक रत्नचन्द्र मूलसंघ सरस्वती गच्छके भट्टारक थे। ये हुंबड़ जाति के थे। इन्होंने 'सभौमचक्रि-चरित्र' की रचना सं. १६८३ में सागपत्तन ( सागवाडा. वाग्वर देश ) के हेमचन्द्र पाटनीको प्रेरणासे पाटलिपुत्रमें गंगाके किनारे सुदर्शन चैत्यालयमें की थी। पाटनीजी भट्टारक रत्नचन्द्रजीके साथ शिखरजीकी यात्राके लिए गये थे। इनके साथ आचार्य जयकीति तथा श्रावकोंका संघ भी था। इस सम्बन्धमें उन्होंने ग्रन्थकी प्रशस्तिमें उल्लेख भी किया है जो इस भाँति है संमेदाचलयात्रायै रत्नचन्द्रास्समागताः । जगन्महन्नात्मजाचार्य जयकीर्तिभिरन्वितः ।।१६।। श्रीमत्कगलकीर्त्याद्वैः सूरिभिश्च सुवणिभिः । कल्याण-कचराख्यान-कान्हजी-भोगिदासकैः ।।१७।। कारंजाके सेनगणके भट्टारक सोमसेनके पट्टशिष्य भट्टारक जिनसेन द्वारा सम्मेदाचलकी यात्राका उल्लेख मिलता है। जिनसेनका समय शक सं. १५७७ से १६०७ ( सन् १६५५ से १६८५) तक है । इनके सम्बन्धमें सेनगण मन्दिर नागपुरमें स्थित एक गुटकेमें चार पद्य मिलते हैं। उनमें अन्तिम पद्य इस प्रकार है "संघ प्रतिष्ठा पाँच धर्म उपदेस सुकारी। श्रीगिरनारि समेदशिखर तोरथ कियो भारी। संघपति सोयरासाह निबासा माधव संगवी। गनवा संगवी रागटेकमा कान्हा संगवी ॥ . जिनसेन नाम गुरुरायने संघतिलक एते दिय । माणिक्यस्वामी यात्रा सफल धर्म काम बहु बहु किय ।। १. उत्तर पुराण, ७३१६-२४ । २. पासनाह चरिउ । ३. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ. ३३ ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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