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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ रायात्कुबेरं मदनं स्वरूपेणार्क प्रतापेन विधुं सुसौम्यात् । ऐश्वर्यतां वासवमर्चयापि तिरस्करोतीह जिनेन्द्रभक्तः ॥१९॥ नानू सूनामा जगतीप्रसिद्धो यो मौलिबद्धावनिनाथतूल्यः । स्ववंशवाताध्वविकाससूरोऽस्य प्रार्थनातो क्रियते मयैतत् ॥२०॥ -उस राजा मानसिंहके एक अधिकारी गोधा गोत्रीय रूपचन्द खण्डेलवाल थे। वह महान् पुण्यात्मा, यात्रा आदि शुभकर्म करनेवाला और अत्यन्त धनाढ्य व्यापारी था। वह महान् दाता, गुणज्ञ, जिनपूजनमें रत रहनेवाला था । वह धनमें कुबेस्को, स्वरूपमें कामदेवको, प्रतापमें सूर्यको, सौम्यतामें चन्द्रमाको, ऐश्वर्यमें इन्द्रको तिरस्कृत करता था। उसका पुत्र नानू था । वह राजाके समान था और अपने वंशका शिरोमणि था। उसकी प्रार्थनापर मैं यह चरित बना रहा हूँ। ___महामात्य नानूने सम्मेदशिखरके ऊपर बीस तीर्थंकरोंके जो मन्दिर (टोंके) बनाये, उनसे पहले वहाँ क्या मन्दिर नहीं थे और थे तो वे किसने बनवाये थे? इस सम्बन्धमें अनुसन्धानकी आवश्यकता है। तीर्थंकर भगवान् जिस स्थानसे मुक्त हए, उस स्थानपर सौधर्मेन्द्रने चिह्न स्वरूप स्वस्तिक बना दिया, दिगम्बर परम्परामें इस प्रकारकी मान्यता प्रचलित है। इस मान्यताके आधारपर यह कहा जा सकता है कि भक्त श्रावकोंने उन स्थानोंपर तीर्थकरोंके चरण स्थापित किये । महामात्य नानूने जिन मन्दिरोंका निर्माण किया था, वे पुराने जीर्ण मन्दिरोंके स्थानपर ही बनाये गये थे। ( यहाँ मन्दिरोंका अर्थ टोंकें हैं। ) मन्त्रिवर नानू द्वारा बनायी गयी वे ही टोंकें अबतक वहाँ विद्यमान हैं। मन्त्रिवर नानूके पहले यहाँ मन्दिर और मूर्तियाँ थीं, इस प्रकारके उल्लेख हमें कई ग्रन्थामें मिलते हैं । तेरहवीं शताब्दीके विद्वान् यति मदनकीर्ति, जो पं. आशाधरजीके प्रायः समकालीन थे, ने 'शासन चतुस्त्रिशिका' में लिखा है सोपानेषु सकष्टमिष्टसुकृतादारुह्य यान् वन्दते सौधर्माधिपति प्रतिष्ठितवपुष्का' ये जिना विंशतिः । मुख्याः स्वप्रमितिप्रभाभिरतुला संमेदपृथ्वीरुहि भव्योऽन्यस्तु न पश्यति ध्रुवमिदं दिग्वाससां शासनम् ॥११।।। अर्थात् सौधर्म इन्द्रने बीस तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ जहाँ प्रतिष्ठित की हैं, तथा जो प्रतिमाएँ अपने आकारकी प्रभासे तुलनारहित हैं, उस सम्मेद रूपी वृक्षपर भव्य जन कष्ट उठाकर भी सीढ़ियों द्वारा चढ़कर पूण्योदयसे उन प्रतिमाओंकी वन्दना करते हैं। भव्यके अतिरिक्त उनके दर्शन अन्य कोई नहीं कर सकता । यह दिगम्बर-धर्म शाश्वत है अर्थात् यहाँ सदासे रहा है। यतिजीने सम्मेदशिखरके सम्बन्धमें जो वर्णन किया है, उसमें तीन बातोंका उल्लेख किया गया है-(१) इस क्षेत्रपर सौधर्म इन्द्रने बीस तीर्थंकरोंकी प्रतिमा स्थापित की थी। (२) उन प्रतिमाओंका प्रभामण्डल प्रतिमाओंके आकारका था, इसलिए उनकी ओर देखनेके लिए श्रद्धाकी आँखें ही समर्थ होती थीं। जिनके हृदयमें श्रद्धा नहीं होती थी, वे इन प्रभा-पुंज स्वरूप प्रतिमाओको देख नहीं सकते थे। (३) यतिजीके काल तक अर्थात् तेरहवीं शताब्दी तक इस तीर्थराजपर दिगम्बर समाजका ही आधिपत्य था। १. गात्रं वपुः संहननं शरीरं वर्म विग्रहः ।।११७० । कायो देहः क्लीबपुंसोः स्त्रियां मूर्तिस्तनुः । -अमरकोष "मूर्तिः पुनः प्रतिमायां कायकाठिन्ययोरपि ॥"-हैम ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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