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श्री सम्मेदशिखर
महान् सिद्धक्षेत्र
श्री सम्मेदशिखर सम्पूर्ण तीर्थक्षेत्रोंमें सर्वप्रमुख तीर्थक्षेत्र है। इसीलिए इसे तीर्थराज कहा जाता है। इसकी भाव सहित वन्दना-यात्रा करनेसे कोटि-कोटि जन्मोंसे संचित कर्मोंका नाश हो जाता है। निर्वाण क्षेत्र-पूजामें कविवर द्यानतरायजीने सत्य ही लिखा है-“एक बार बन्दै जो कोई। ताहि नरक-पशुगति नहिं होई ॥" एक बार वन्दना करनेका फल नरक और पशुगतिसे ही छुटकारा नहीं है, अपितु परम्परासे संसारसे भी छुटकारा है। किन्तु यह वन्दना द्रव्य-वन्दना या क्षेत्र-वन्दना नहीं, भाव-वन्दना होनी चाहिए।
ऐसी अनुश्रुति है कि श्री सम्मेदशिखर और अयोध्या ये दो तीर्थ अनादि-निधन शाश्वत हैं। अयोध्या में सभी तीर्थंकरोंका जन्म होता है और सम्मेदशिखरमें सभी तीर्थंकरोंका निर्वाण होता है। किन्तु हुण्डावसर्पिणीके काल-दोषसे इस शाश्वत नियममें व्यतिक्रम हो गया। अतः अयोध्या में केवल पाँच तीर्थंकरोंका ही जन्म हुआ और सम्मेदशिखरसे केवल बोस तीर्थंकरोंने निर्वाण-लाभ किया। किन्तु इनके अतिरिक्त भी असंख्य मुनियोंने यहींपर तपश्चरण करके मुक्ति प्राप्त की। सम्मेदशिखरको भाव-वन्दनासे तात्पर्य यह है कि इस क्षेत्रसे जो तीर्थंकर और अन्य मुनिवर मुक्तिको प्राप्त हुए हैं, उनके गुणोंको सच्चाईके साथ अपने हृदयमें उतारें और तदनुसार अपनी आत्माके गुणोंका विकास करें। ऐसा करनेसे मुक्तिका मार्ग प्रशस्त होगा, इसमें सन्देह नहीं।
ढाई द्वीपमें कुल १७० सम्मेदशिखर होते हैं। उनमें जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रका सम्मेदशिखर वही है जो पारसनाथ हिलके नामसे विख्यात है। प्राकृत निर्वाणकाण्डमें सम्मेदशिखरसे बीस तीर्थंकरोंको निर्वाण-प्राप्तिका उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है, जो इस प्रकार है
"वीसं तु जिणवरिंदा अमरासुर-वंदिदा धुद-किलेसा।
सम्मेदे गिरि-सिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ।।२।। संस्कृत निर्वाणभक्ति में इसी बातका वर्णन इस प्रकार है
"शेषास्तु ते जिनवरा जितमोहमल्ला, ज्ञानार्कभूरिकिरणैरवभास्य लोकान् । स्थानं परं निरवधारितसौख्यनिष्ठ, सम्मेदपर्वततले समवापुरीशाः ॥२५॥
प्रसिद्ध आर्ष ग्रन्थ 'तिलोयपण्णत्ति' (४।११८६-१२०६ ) में तो आचार्य यतिवृषभने बीस तीर्थंकरों द्वारा सम्मेदशिखर पर्वतसे मुक्ति प्राप्त करनेका वर्णन विस्तारपूर्वक किया है। उसमें उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकरकी निर्वाण-प्राप्तिको तिथि, नक्षत्र और उनके साथ मुक्त होनेवाले मुनियोंकी संख्या भी दी है। यह विवरण अत्यन्त उपयोगी और ज्ञातव्य है। अतः यहाँ दिया जा रहा है
__ चेत्तस्स सुद्धपंचमिपुव्वण्हे भरणिणामरिक्खम्मि।
सम्मेदे अजियजिणे मुत्ति पत्तो सहस्ससमं ॥ -अजितनाथ जिनेन्द्र चैत्र शुक्ला पंचमोके दिन पूर्वाह्न कालमें भरणी नक्षत्रके रहते सम्मेदशिखरसे एक हजार मुनियोंके साथ मुक्तिको प्राप्त हुए।
भाग २-१९