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________________ बिहार-बंगाल - उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं ७९ वहाँ ले चलो ।” विद्यादेवी उसे सुमेरु पर्वतपर ले गयी । विद्युच्चोरने जिनदत्त श्रेष्ठीको विनयसे नमस्कार किया और बोला - " आपकी कृपासे मुझे आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो गयी ।" विद्यासाधनका इतिहास सुनकर श्रेष्ठीको सन्तोष हुआ। फिर वे दोनों मुनिराजके समीप गये । वहाँ मुनिराजका उपदेश सुनकर विद्युच्चरने मुनि दीक्षा देनेकी प्रार्थना की। मुनिराजने इसे भव्यात्मा और अल्पायु जानकर दीक्षा दे दी। विद्युच्चरने कठोर तप करके कर्मोंका नाश कर दिया और केवलज्ञान प्राप्त किया । पश्चात् शेष अघातिया कर्मोंका नाश करके अक्षय मोक्ष सुख प्राप्त किया । इस सन्दर्भ में आराधना कथाकोष में लिखा है केवलज्ञानमुत्पाद्य भक्त्या त्रैलोक्यपूजितः । शेषकर्मक्षयं कृत्वा प्राप्तवान्मोक्षमक्षयम् ॥४६ — कथा ६ अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त करके त्रिलोकपूजित विद्युच्चर मुनिने शेष कर्मोंका नाश करके अक्षय मोक्ष प्राप्त किया । (८) पाण्डुक पर्वतपर तपस्या करके गन्धमादन मुनिको निर्वाण प्राप्त हुआ । (९) भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे - इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मं, मण्डिकपुत्र, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास । इनके सम्बन्धमें दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्यसे जो जानकारी प्राप्त होती है, वह उपयोगी समझकर यहाँ दी जा रही है । इनमें इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति ये तीनों सहोदर भ्राता थे । मण्डिकपुत्र और मौर्यपुत्र दोनोंकी माता एक थी । ये सभी गणधर ब्राह्मण थे, उपाध्याय थे । ग्यारह अंग और चौदह पूर्वके ज्ञाता थे । बज्रवृषभनाराचसंहननके धारी थे। सबके समचतुरस्र संस्थान था । गणधर बननेपर सबको आमर्षौषधि आदि आठ लब्धियाँ प्राप्त हो गयी थीं । दिगम्बर साहित्यमें इनके सम्बन्ध में विशेष परिचय प्राप्त नहीं होता । केवल इन्द्रभूति के सम्बन्धमें इतना परिचय मिलता है कि वह गौतम गोत्री विद्वान् ब्राह्मण था । उसके ५०० शिष्य थे । इन्द्र द्वारा महावीर भगवान्‌ के समवसरण में ले जानेपर मानस्तम्भको देखते ही उसका मान गलित हो गया और जाकर भगवान्‌के चरणों में दीक्षा ले ली। उनके कोटि-कोटि जन्मोंके कर्मबन्ध टूट गये । भगवान् की वीजपदी वाणीको सुनकर उन्होंने श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके पूर्व दिनमें बारह अंगों और चौदह प्रकीर्णकों की रचना की । श्वेताम्बर साहित्य में इन गणधरोंके सम्बन्धमें कुछ विस्तृत परिचय मिलता है । इनके सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य इस प्रकार है 1 इन्द्रभूति - माता प्रिथिवी पिता वसुभूति, गोत्र गौतम, मगध में गोर्वर ग्राम के रहनेवाले थे । इनके ५०० शिष्य थे । ये वेद-वेदांगके ज्ञाता थे । किन्तु इनके मनमें शंका थी कि जीव है या नहीं । इस शंकाका निवारण तीर्थंकर महावीरने किया था । उनकी दिव्यध्वनि इन्द्रभूतिके निमित्तसे उनकी शंकाके समाधान रूपमें प्रकट हुई थी। उनकी कुल आयु ९२ वर्ष की थी, जिसमें ५० वर्ष गृहस्थ अवस्थाके, ३० वर्ष छद्मस्थ दशामें और १२ वर्ष केवलज्ञान दशामें व्यतीत हुए । १. हरिषेण कथाकोष में विद्युच्चर ( जिसको अंजनचोर भी कहा जाता था ) को निर्वाण प्राप्ति न बताकर देवगतिकी प्राप्ति बतलायी है । यथा - विद्युच्चौरश्चिरं तप्त्वा तपः कर्म विनाशनम् । विधिनामृतिमासाद्य बभूव विवुधो महान् ॥ २. हरिषेण कथाकोष, कथा १२७ । ३. तिलोयपण्णत्ति, ४।९६८-९७१, कथानक ४ ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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