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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं वैराग्य हो गया। वह विपुलाचल पर भगवान् महावीरकी शरण में जा पहुँचा और दीक्षा ले ली। फिर उन्होंने घोर तपस्या की और घातिया कर्मोंका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया । अन्तमें शेष अघातिया कर्मोंका नाश कर परम पद निर्वाण प्राप्त किया । ७८ (६) पाटलिपुत्र नगरका भूपाल विशाख था, विशाखा उसकी रानी थी और वैशाख नामक एक पुत्र था । वैशाख जब बड़ा हो गया तो उसका विवाह कनकश्री राजकुमारीके साथ हो गया । एक दिन मुनिदत्त मुनि आहारके लिए राजमहल में आये । वैशाखने नवधा भक्तिके साथ उनका प्रतिग्रह किया और आहार दिया । आहार करनेके बाद मुनि जाने लगे तो राजकुमार भी अपनी पत्नी से पूछकर उनके साथ चल दिया। लेकिन वह फिर लौटकर नहीं आया, उसने मुनि दीक्षा ले ली । कनकश्री अपने पति के वियोग में तड़पती रही । वह इसी वेदनामें मर गयी और मरकर व्यन्तरी हुई। मुनि वैशाख मासोपवास करते थे। जब वे पारणा के लिए जाते थे तो व्यन्तरी पूर्वजन्मके क्रोध के कारण आहार के समय उपसर्ग करती थी और उनका इन्द्रियवर्धन कर देती थी। एक बार विहार करते हुए वे राजगृह नगर पधारे और पारणाके लिए निकले। रानी चेलनाने उनको पड़गाहा और जब वे आहार लेने लगे, तभी व्यन्तरीने उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया। रानीने उपसर्ग समझकर वस्त्रकी आड़ कर दी और निरन्तराय आहार हुआ । मुनिराज वैशाख विपुलगिरिपर जाकर ध्यानारूढ़ हो गये और घातिकर्मोंका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया । पश्चात् यहीं से उन्होंने शेष कर्मों का नाश कर मुक्ति प्राप्त की । (७) राजगृहमें जिनदत्त नामक एक धर्मात्मा सेठ था । वह प्रत्येक चतुर्दशीकी रात्रि में श्मशान में जाकर ध्यान किया करता था। एक बार अमितप्रभ और विद्युत्प्रभ नामक दो देवों ने उसकी परीक्षा ली किन्तु सेठ ध्यानसे विचलित नहीं हुआ । तब देवोंने प्रसन्न होकर उसे आकाशगामिनी विद्या दी और यह भी कह दिया कि "यदि तुम यह विद्या किसी दूसरे को भी देना चाहो तो दे सकते हो" उसकी विधि भी बता दी। जिनदत्त सेठ विद्या की सहायतासे अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दनाको जाने लगा । एक बार सोमदत्त नामक मालीको भी सेठने विधि बता दी । सोमदत्त जिनदत्त के उपदेशानुसार श्मशान में पहुँचा । उसने एक वटवृक्षकी डालमें एक छींका टाँग दिया । नीचे भूमिपर तेज धारवाले शस्त्रास्त्र गाड़ दिये, जिनके फलक ऊपरको निकले हुए थे । छींके में बैठकर सोमदत्त एक छुरीसे छींकेकी रस्सियोंको काटनेके लिए तैयार हुआ किन्तु नीचे तीक्ष्ण फलकवाले शस्त्रास्त्रोंको देखकर वह भयभीत हो गया। उसके मनमें संशय जागा - काश ! विद्या सिद्ध न हुई तो मैं इन शस्त्रोंपर गिरकर मर जाऊँगा । यों विचार कर वह पेड़से नीचे उतर आया। वह फिर साहस करके चढ़ा और भयभीत होकर उतर आया । विद्युच्चोर कहीं छिपा हुआ यह सब देख रहा था । उसने सोमदत्त से बार-बार वृक्षपर चढ़ने-उतरनेका कारण पूछा। तब सोमदत्तने सेठ जिनदत्त द्वारा प्रदत्त विद्या सिद्ध करने और शस्त्रोंको देखकर डरनेकी बात बतायी। विद्युच्चोर साहसी था । वह बोला - " तुम्हें भय लगता है तो तुम हट जाओ, मैं विद्या-साधन करूँगा ।" यों कहकर वह वृक्षपर चढ़ गया और बड़े निश्शंक भावसे मन्त्रोच्चारण करते हुए उसने छींके की रस्सियाँ काट डालीं । अन्तिम रस्सीके कटते ही देवी उपस्थित हुई और पूछा - " क्या आज्ञा है ?" विद्युच्चोरने आज्ञा दी - "जहाँ जिनदत्त श्रेष्ठी हों, १. आराधना कथाकोष, कथा १०८ । २. हरिषेण कथाकोष, कथा ८ ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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