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राजगृही
कल्याणक क्षेत्र
राजगृही सहस्रों वर्षोंसे विख्यात तीर्थक्षेत्र है। यहां बीसवें तीर्थंकर भगवान् मुनिसुव्रतनाथके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान ये चार कल्याणक मनाये गये। भगवान्के जन्मके सम्बन्धमें 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थसे निम्नलिखित सूचनाएँ प्राप्त होती हैं
रायगिहे मुणिसुव्वयदेवो पउमासुमित्तराएहिं ।
अस्सजुदवारसीए सिदपक्खे सवणभे जादो ॥४५४५ अर्थात् भगवान् मुनिसुव्रतनाथ राजगृह नगरमें माता पद्मा' और पिता सुमित्र राजासे आसोज शुक्ला द्वादशीके दिन श्रवण नक्षत्रमें उत्पन्न हुए।
राजा सुमित्र राजगृहके नरेश थे, हरिवंशके शिरोमणि थे और काश्यपगोत्री थे।
कुमार मुनिसुव्रत जब यौवन अवस्थाको प्राप्त हुए, तब पिताने तीन ज्ञानधारी अपने पुत्रका राज्याभिषेक किया। राज्य-शासन करते हुए मुनिसुव्रतका काफी काल व्यतीत हो गया। एक दिन बरसातके मौसममें घनघोर घटाएँ घिर रही थीं, घन-घटा भीषण गर्जन कर रही थी। ऐसे मस्ती के आलममें यागहस्तीने आहार बन्द कर दिया। मुनिसुव्रत तो अवधिज्ञानके द्वारा हाथी की विचारधाराको जानते थे। उन्होंने हाथीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताते हुए उसकी वर्तमान विचारधारा बतायी। किन्तु इससे स्वयं उनके ही मनपर एक अद्भुत प्रभाव पड़ा। उनके मनमें संसार, शरीर और इन्द्रिय-भोगोंके प्रति वैराग्य जागृत हो गया। उन्होंने युवराज विजयका राज्याभिषेक करके उसे राज्य सौंप दिया और स्वयं राजपाट और घर-बार छोड़कर देव-शिविकामें वनकी ओर चल दिये। वहां उन्होंने 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर केशलोंच किये और मुनि-दीक्षा ले ली। ___ इस सम्बन्धमें आचार्य यतिवृषभ 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें लिखते हैं
.वइसाहबहुल दसमी अवरण्हे समणभम्मि णीलवणे।
उववासे तदिम्मि य सुव्वददेवो महावदं धरदि ॥४॥६६३ अर्थात् मुनि सुव्रतदेवने वैशाख कृष्ण दशमीको अपराह्न कालमें श्रवण नक्षत्रके रहते नीलवनमें तृतीय उपवासके साथ महाव्रतोंको धारण किया।
इस प्रकार भगवान्का दीक्षा कल्याणक राजगृहके बाहर वनमें मनाया गया ।
दीक्षा लेते ही भगवान्को मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। इस प्रकार वे मतिज्ञान-श्रतज्ञानअवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान चार ज्ञानके धारी हो गये। वे आत्मिक साधनामें लीन हो गये। एक बार वे राजगह नगरमें पारणाके निमित्त भी पधारे। वृषभसेन राजाने उन्हें शद्ध आहार दिया। जब इस तरह तपश्चरण करते हुए ग्यारह माह बीत गये, तब भगवान् पुनः अपने दीक्षावनमें पहुँचे । वहाँ वे एक चम्पक वृक्षके नीचे स्थित होकर दो दिन तक उत्तम ध्यानमें लीन रहे। उनके घाति कर्मोके बन्धन टूट गये और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
१. उत्तरपुराण ६७।२० के अनुसार माताका नाम सोमा था।
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