SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरप्रदेश इतिहास और कलाकी पृष्ठभूमि वर्तमान उत्तरप्रदेश श्रमण जैन संस्कृतिका आदि स्रोत रहा है। चौबीस तीर्थंकरोंमें-से ठारह तीर्थंकरोंका जन्म यहीं हआ। समाज-व्यवस्था, राज-व्यवस्था, दण्ड-व्यवस्था, लिपि और विद्याओंका प्रारम्भ, वंश-स्थापना और यहाँतक कि धर्म-व्यवस्था यहींसे प्रारम्भ हुई। इसलिए उत्तरप्रदेशका अपना विशेष महत्त्व है। इस परिप्रेक्ष्यमें उत्तरप्रदेशकी पृष्ठभूमि समझनेके लिए जैनधर्मकी कुछ मौलिक मान्यताओंपर दृष्टिपात करना उपयोगी प्रतीत होता है। काल-चक-काल सतत प्रवहमान है। उसका चक्र निरन्तर घूमता रहता है। कालका कहीं आदि नहीं और कहीं अन्त नहीं। यह सतत परिणमनशील और परिवर्तनशील है संसारकी सभी वस्तुएँ परिणमनशील हैं। परिणमन ही वस्तुका धर्म है और काल उसका मापक है। ___जैनधर्मने इस काल-चक्रको अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दो खण्डोंमें विभाजित किया है। इनमें से प्रत्येकके ६ विभाग स्वीकार किये गये हैं-सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमासुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा। इन सब १२ कालोंका एक चक्र कल्प कहलाता है। प्रकृति स्वयं ही एक कल्पके आधे भागमें निरन्तर उत्कर्षणशील बनी रहती है। इसमें मनुष्यकी आयु, रूप, स्वास्थ्य आदि सभी क्षेत्रोंमें उत्कर्ष होता रहता है। अतः यह उत्सर्पिणी काल कहलाता है। जिस कालमें मनुष्यकी आयु, स्वस्थ शरीर, विश्वास आदिमें अपकर्ष होता रहता है, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है। एक कल्प व्यतीत होनेपर प्रकृतिमें भारी परिवर्तन होते हैं, तब दूसरे कल्पका प्रारम्भ होता है। काल इसी परिवर्तन, सष्टि और विनाशकी धरीपर निरन्तर चक्रकी तरह घमता रहता है । प्रकृतिका सम्पूर्ण विनाश कभी नहीं होता, केवल रूप-परिवर्तन भर होता है। घड़ीके डायलमें सुई बारहके बाद छह बजे तक नीचेकी ओर जाती है और उसके बाद बारह बजेतक ऊपरको जाती है। कालकी भी यही स्थिति है। काल अखण्ड और अविभाज्य है, किन्तु व्यवहारकी सुविधाके लिए हम एक-दो-तीन, घण्टा-घड़ी आदि कालके विभाग कर लेते हैं। कल्प और उसके छह भेदोंकी कल्पना भी व्यावहारिक सूविधाके लिए की गयी है। इस प्रकार कल्पका प्रारम्भिक काल सुविधाके लिए सृष्टिका आदि काल मान लिया गया है और उस कालमें रहनेवाला मानव आद्य मानव कहा जाता है। कल्प-वृक्ष-मनुष्य-समाजके आरम्भिक और अविकसित रूपको 'युगलिया समाज'के नामसे सम्बोधित किया जाता है। तत्कालीन मानव समाजमें विवाह-प्रथाका प्रचलन नहीं था, अतः सहजात बहन-भाई ही पति-पत्नीके रूपमें रहने लगते थे। वे अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए वृक्षोंपर निर्भर रहते थे, जिन्हें कल्प-वृक्ष कहा जाता था। उस समय मानव प्रकृतिसे सरल था। वह सहज जीवन व्यतीत करता था। उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं और आवश्यकता १. कल्पवृक्ष, १० प्रकारके होते हैं-१. मद्यांग, २. तूर्यांग, ३. विभूषांग, ४. माल्यांग, ५. ज्योतिरंग, ६. द्वीपांग, ७. गृहांग, ८. भोजनांग, ९. पत्रांग, १०. वस्त्रांग । ये अपने नामके अनुरूप ही फल देते थे।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy