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प्राक्कथन
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आभार-प्रदर्शन
यह ग्रन्थ जो भी कुछ बन पड़ा है, उसमें अनेक महनीय व्यक्तियों का आशीर्वाद और योगदान सर्व प्रमुख कारण रहा है। किन्तु यदि इसके लिए किसी एक ही व्यक्ति को श्रेय दिया जा सकता है तो वे हैं जैन समाज के हृदय सम्राट साहू शान्तिप्रसादजी। उनकी औद्योगिक प्रतिभा, प्रबन्ध-पटुता, सभा-चातुर्य आदि विशेषताओंने देश-विदेशके असंख्य-व्यक्तियोंको उनका प्रशंसक बना दिया है। इस ग्रन्थके सन्दर्भमें जब मुझे उनके निकट सम्पर्कमें आनेका सौभाग्य मिला तब मुझे उनके गहन अध्ययन, साहित्यिक पकड़ और अद्भुत सूझ-बूझके दर्शन हुए । निश्चय ही मैं उससे बड़ा अभिभूत और विस्मित हुआ। वस्तुतः इस ग्रन्थकी रूपरेखा साहजीके ही मस्तिष्क की देन है। उनका मुझे आशीर्वाद मिला है और सहज स्नेह भी। उनके प्रति मैं विनम्र भावसे हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ। साथ ही, मैं भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी का भी आभारी हूँ जिनका प्रेम, सहयोग और सुझाव सभी कुछ मिले। मैं अपने मित्र डॉ. गुलाबचन्द्र जैन को भी धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने परिश्रमके साथ भाषा आदि का संशोधन किया।
इस ग्रन्थ पर विचार करने के लिए श्रीमान् साहूजी के सान्निध्यमें ज्ञानपीठके सहयोगियोंकी समयसमय पर बैठकें हुई । इन बैठकोंमें सामग्री, शैली, भाषा, रूपरेखा आदि सभी दृष्टिसे विचार किया जाता रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि ग्रन्यके आन्तरिक सौन्दर्य-सृजनमें इन सभी सज्जनोंका बहुत बड़ा हाथ रहा है। उन सबके प्रति भी मैं अपना आभार प्रकट करता हूँ।
मैं भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई की कार्यकारिणीका भी अत्यन्त आभारी हूँ कि उसने सामयिक और समयोपयोगी निर्णय करके भारतीय ज्ञानपीठके माध्यमसे मुझे यह अवसर प्रदान किया।
भारतीय ज्ञानपीठकी अध्यक्षा श्रीमती रमा जैनका भी मैं हृदयसे कृतज्ञ हैं जिनकी स्नेहिल छायामें मैं इस दायित्वका निर्वाह कर सका।
वीर-परिनिर्वाण दिवस १३ नवम्बर, १६७४
-बलभद्र जैन