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________________ १६६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - इतिहास आद्य तीर्थंकर ऋषभदेवने ५२ जनपदोंकी रचना की थी। उनमें एक कोशल देश भी था। कोशलके दक्षिण भागकी राजधानी साकेत या अयोध्या थी जो सरयके दक्षिण तटपर अवस्थित थी। उत्तरी कोशलकी राजधानी श्रावस्ती थी जो अचिरावती ( राप्ती) के दक्षिण तटपर स्थित थी। लगता है, कोशल देशका यह विभाजन बहुत पश्चाद्वर्ती काल में हुआ। क्योंकि भगवान् ऋषभदेवने दीक्षा लेते समय अपने सौ पुत्रोंको जिन देशोंका राज्य दिया था, उन देशोंमें कोशल देशका ही नाम आया है,। चक्रवर्ती भरतकी दिग्विजयके प्रसंगमें भी मध्यदेशमें कोशलका नाम मिलता है। परवर्ती कालमें कोशल जनपदका नाम कूलाल या कुणाल भी प्रसिद्ध हो गया। महावीरसे पहले जिन सोलह महाजनपदोंकी और छह महानगरियोंकी चर्चा प्राचीन साहित्यमें मिलती है, उनमें श्रावस्तीका भी नाम है। उस समय कोशल राज्य बड़ा शक्तिशाली था। काशी और साकेतपर भी कोशलोंका अधिकार था। शाक्य संघ इन्हें अपना अधीश्वर मानता था। यह महाराज्य दक्षिणमें गंगा और पूर्व में गण्डक नदीको स्पर्श करता था। इस कालमें श्रावस्तीमें एक विश्वविद्यालय भी था। महावीरके समयमें श्रावस्तीका राजा प्रसेनजित था। वह बड़ा प्रतापी नरेश था। उसने अपनी बहनका विवाह मगध सम्राट श्रेणिक बिम्बसारके साथ कर दिया था तथा काशीकी आय दहेजमें दे दी थी। प्रसेनजितके पुत्र विदूडभ अथवा विदूरथने राजगृहसे अपने राजनीतिक सम्बन्ध सुदढ़ करने के लिए अपनी पुत्री प्रभावतीका विवाह श्रेणिकके पुत्र कुणिक अथवा अजातशत्रुके साथ कर दिया। किन्तु काशीके ऊपर दोनों राज्योंका झगड़ा बराबर होता रहा। कोशलनरेशने एक बार काशीको राजगृहके प्रभाव से मुक्त कर लिया। किन्तु अजातशत्रुने काशीको जीतकर अपने राज्यमें मिला लिया। प्रसेनजितके सम्बन्धमें श्वेताम्बर आगमोंमें कुछ भिन्न उल्लेख मिलता है। वहाँ प्रसेनजितके स्थानपर प्रदेशी नाम दिया गया है। उसे पापित्य सम्प्रदायके केशीका अनुयायी बताया गया है। बादमें वह भगवान् महावीरका अनुयायी बन गया। बौद्धग्रन्थोंमें भी प्रसेनजितके स्थानपर पसदि नाम आया है। बौद्धग्रन्थ 'अशोकावदान में प्रसेनजितके पूर्ववर्ती और पश्चाद्वर्ती वंशधरोंके नाम मिलते हैं। उसके अनुसार व्रत (वंक ) रत्नंजय, संजय, प्रसेनजित, विदूरथ, कुसलिक, सुरथ और सुमित्र इस वंशके राजा हुए। सुमित्रको महापद्मनन्दने पराजित करके कोशलको पाटलिपुत्र साम्राज्यमें आत्मसात् कर लिया। अशोकावदान की इस वंशावलीका समर्थन अन्य सूत्रोंसे भी होता है। भरहुत में जो प्रसेनजित स्तम्भ है, वह इसी प्रसेनजितका बताया जाता है। प्रसेनजितके साथ शाक्यवंशी क्षत्रियोंने किस प्रकार मायाचार किया, उसकी कथा अत्यन्त रोचक है। प्रसेनजितने शाक्यवंशसे एक सुन्दर कन्याकी याचना की। शाक्यलोग उसे भर १. हरिषेण कथाकोष, कथा ८१ । २. आचार्य चतुरसेन शास्त्री-वैशाली की नगरवधू ( भूमि.), पृ. ७९२ । ३. Records of the Western World, Part I & II, by Rev. Beal. ४. Chronology of India, by Mrs. M. Luff.
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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