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________________ १६४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ एक पाषाण-फलकमें चन्द्रप्रभ पद्मासनमें विराजमान हैं। वर्ण हलका बादामी है। इसपर कोई अभिलेख नहीं है। अनुमानतः यह प्रतिमा १२वीं शताब्दीकी लगती हैं। इस वेदीमें कूल १०६ प्रतिमाएँ हैं, जिनमें १५ पाषाणको तथा ९२ धातूकी प्रतिमाएं हैं। धातु-प्रतिमाओंमें १० चौबीसी हैं। इन प्रतिमाओं में कुछ वि. सं. १५०१ और १५४८ की हैं। ___मन्दिरमें गर्भगृह और सभामण्डप है । मन्दिरके बाहर जैन धर्मशाला है । वार्षिक मेला ___ यहाँ सन् १९५६ से प्रतिवर्ष कार्तिक सुदी ६ को मेला लगता है। श्रावस्ती मार्ग श्रावस्ती उत्तर प्रदेशके बलरामपुर-बहराइच रोडपर अवस्थित है। यह सड़क मार्गसे अयोध्यासे १०९ कि. मी. है जो इस प्रकार है-अयोध्यासे गोंडा ५० कि. मी.। गोंडासे बलरामपुर ४२ कि. मी., बलरामपुरसे श्रावस्ती १७ कि. मी.। यह प्राचीन नगर है। किन्तु अब तो यह खण्डहरोंके रूप में बिखरा पड़ा है। इस नगरीके खण्डहर गोंडा और बहराइच जिलोंकी सीमापर 'सहेट-महेट' नामसे बिखरे पड़े हैं। ये अर्धचन्द्राकार स्थितिमें एक मील चौड़े और सवा तीन मील लम्बे क्षेत्रमें बिखरे हुए हैं। रेलमार्गसे यहाँ पहुँचनेके लिए उत्तर-पूर्वी रेलवेके गोंडा-गोरखपुर लाइनके बलरामपुर स्टेशनपर उतरना चाहिए। यहाँसे क्षेत्र पश्चिममें है। यह बलरामपुरसे बहराइच जानेवाली सड़क किनारेपर है। एक छोटी सड़क खण्डहरों तक जाती है। सहेट-महेट पहुँचनेका सुगम साधन बलरामपुर-बहराइचके बीच चलनेवालो सरकारी बस है । इसके अलावा बलरामपुरसे टैक्सी, जीप आदि भी मिलती हैं । यहाँ ठहरनेके लिए जैनधर्मशाला बनी हुई है। जैनतीर्थ श्रावस्ती प्रसिद्ध कल्याणक तीर्थ है। तीसरे तीर्थंकर भगवान् सम्भवनाथके गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान कल्याणक यहीं हए थे। चारों प्रकारके देवों और मनुष्योंने इन कल्याणकोंकी पूजा - और उत्सव किया था। भगवान् सम्भवनाथका प्रथम समवसरण यहीं लगा था और उन्होंने यहींपर धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। आर्ष ग्रन्थ तिलोयपण्णत्तिमें निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है सावित्थीए संभवदेवो य जिदारिणा सुसेणाए। मग्गसिर पुण्णिमाए जेट्टारिक्खम्मि संजादो ॥५२८|| अर्थात् श्रावस्ती नगरीमें सम्भवनाथ मगसिर शुक्ला पूर्णिमाको ज्येष्ठा नक्षत्रमें उत्पन्न हुए। उनके पिताका नाम जितारि और माताका नाम सुषेणा था। इसी प्रकार पद्मपुराण, वरांगचरित, हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण आदिमें भी उल्लेख मिलते हैं। सम्भवकुमारने अपना बाल्यकाल और युवावस्था यहीं बितायी। उन्होंने राज्यशासन और सांसारिक भोगोंका भी स्वाद लिया। लेकिन एक दिन जब उन्होंने हवाके द्वारा मेघोंको गगनमें विलीन होते देखा तो उन्हें जीवनके समस्त भोगोंकी क्षणभंगुरताका एकाएक अनुभव हुआ और उन्हें संसारसे वैराग्य हो गया। फलतः मगसिर शुक्ला पूर्णमासीको श्रावस्तीके सहेतुक वनमें दीक्षा ले सणाए। -
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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