________________
उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ
१५१
है । इसके पश्चात् यह वर्ण हलका पड़ने लगता है और लगभग ३ बजे कत्थई रंगकी हो जाती है । रंग का यह परिवर्तन किस कारणसे है, यह विश्वास पूर्वक नहीं कहा जा सकता । सम्भव है, पाषाणकी ही ये विशेषताएँ हों । किन्तु सूर्यकी किरणें मन्दिरके अन्दर प्रतिमा तक पहुँच नहीं पातीं। ऐसी दशा में प्रतिमाका यह रंग परिवर्तन एक दैवी चमत्कार माना जाने लगा है ।
इस प्रकारका एक और भी दैवी चमत्कार यहाँ देखनेको मिलता है । यहाँ हर रातको पर्वतके ऊपर केशरकी वर्षा होती है । प्रातःकाल पहाड़ीके ऊपर जानेपर छोटी-छोटी पीली बूँदें पड़ी हुई रहती हैं । यहाँ कार्तिक सुदी १३, चैत सुदी १५ को खूब केसर वर्षा होती है ।
पुरातत्त्व
पभोसामें शुंगकाल ( ई. पू. १८५ से १०० ) के समय के कई शिलालेख प्राप्त हुए हैं। शुंगवंशके अन्तके बाद शुंगवंशकी ही एक शाखा मित्रवंशी नरेशोंका आधिपत्य यहाँ रहा । इन मित्रवंशी कई राजाओंके सिक्के और मूर्तियाँ कौशाम्बी, मथुरा आदि कई स्थानोंपर बहुसंख्या में मिले हैं। उत्तर पंचाल नरेश आषाढ़सेन के समय के दो लेख पभोसामें पाये गये हैं । एक लेखमें राजा आषाढ़ - नको बृहस्पति मित्रका मामा बताया है । बृहस्पतिमित्र मथुराका मित्रवंशीय नरेश था ।
भोसामें जो प्राचीन मन्दिर और मूर्तियाँ हैं, वे सभी प्रायः शुंग और मित्रवंशी राजाओं के कालकी मालूम पड़ती हैं। यहाँ पर एक आयागपट्ट भी उपलब्ध हुआ था, जो इस प्रकार पढ़ा गया है
'सिद्धं राज्ञो शिवमित्रस्य संवघटे. . रवमाह किय....... स्थविरस लदासस निवर्तन शशिवनंदिस अन्तेवासिस शिवपालित आयागपट्टे थापयति अरहतो पूजायै ।'
अर्थात् सिद्ध राजा शिवमित्रके राज्यके बारहवें वर्ष में स्थविर बलदासके उपदेशसे शिवनन्दीके शिष्य शिवपालितने अरहन्त पूजाके लिए आयागपट्ट स्थापित किया ।
आस-पासके जैन मन्दिर
यह क्षेत्र शताब्दियों तक जैनधर्मका प्रमुख केन्द्र रहा है । अतः यहाँ आसपास में जैन पुरातत्त्व सम्बन्धी सामग्री और मूर्तियाँ बहुतायत से मिलती हैं । इसी प्रकारकी एक मूर्ति चम्पहा बाजारमें देखी जो एक खेतमें से निकली थी। यह मूर्ति खण्डित है । घुटनोंके नीचेका भाग टूट गया है । यह सर्वतोभद्रका है । अब यहाँ जैन मन्दिर भी बन गया है । और वह मूर्ति मन्दिरमें रख दी गयी है । यह मूर्ति ई. सन्से पूर्वकी प्रतीत होती है ।
इसी प्रकार शहजादपुर में एक जैन मन्दिर । एक अनुश्रुति के अनुसार प्राचीन कालमें यहाँ दो सौ जैन मन्दिर थे । किन्तु अब वहाँ जैनका एक भी घर नहीं रहा । यह स्थान भरवारीसे २७ कि. मी. दूर है । कविवर विनोदीलाल इसी स्थानके निवासी थे । बनारसी विलासमें भी इन कविवरकी चर्चा है। इनकी कई रचनाएँ अब तक मिलती हैं, जैसे तीन लोकका पाठ, नेमिनाथका विवाह आदि ।
दारानगर में भी एक प्राचीन मन्दिर है ।
पालीमें एक प्राचीन मन्दिर था । किन्तु यमुनाकी बाढ़में वह बह गया। उसके भग्नावशेष बचे हैं। नया मन्दिर बन गया है। प्रतिमाएँ अत्यन्त प्राचीन हैं ।