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प्रधान सम्पादकीय
सूचना एवं संचार क्रन्ति के वर्तमान युग में देशों के मध्य दूरियां घट गई हैं। व्यक्ति विभिन्न देशों की संस्कृति, सम्यता, धार्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं को जानने की उत्कंठा से अभिभूत है किन्तु भाषायी ज्ञान की अल्पता इसमें बाधक है । भगवान महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि तो सर्व भाषामयी थी किन्तु परवर्ती आचार्यों ने अपने-अपने क्षेत्र में बोली जाने वाली लोक भाषा में भी विपुल साहित्य का सृजन किया है। भारत के तत्कालीन जनमानस की प्रिय भाषा प्राकृत एवं संस्कृत में एक लम्बे समय तक साहित्य का सृजन किया गया किन्तु बाद में अपभ्रंश, कानड़ और 17वीं व 18वीं शताब्दी में राजस्थान की लोकभाषा ढुंढारी में भी उस क्षेत्र के निवासी भट्टारकों एवं पण्डितों ने साहित्य का सृजन किया। 20वीं शताब्दी में विपुल परिमाण में प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश भाषा के मूल ग्रंथों के हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किये गये और इस माध्यम से हमारे प्राचीन ग्रन्थों में निहित सामग्री का बोध जनमानस को हो सका । माणिकाचन्द जैन ग्रंथमाला-मुम्बई, जैन संस्कृति संरक्षक संघ-सोलापुर, भारतीय ज्ञानपीठ- दिल्ली, जैन संघ-मथुरा तथा दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थानहस्तिनापुर ने इस दिशा में श्लाघनीय कार्य किया है। बैरिस्टर चंपतराय जैन, जस्टिस जे.एल. जैनी, बाबू कामताप्रसाद जैन, पं. सुमेस्चन्द दिवाकर, डॉ. ए.एन. उपाध्ये सदृश मनीषियों के प्रयासों से विश्व के अनेक भागों में प्रचलित आंग्ल भाषा में भी साहित्य सृजन का सूत्रपात हुआ । जैन पारिभाषिक शब्दों की जटिलता और विभिन्न लेखकों द्वारा सृजित समानार्थी अंग्रेजी शब्दों में एकरूपता के अभाव ने इस समस्या को और अधिक जटिल कर दिया । जहाँ अमेरिका तथा यूरोप के अनेक देशों में जैन बन्धुओं के प्रवास के कारण आंग्ल भाषा में जैन दर्शन के विविध पक्षों को प्रामाणिकता से उद्घाटित करने वाले साहित्य तथा जैन दर्शन के बारे में सरल, सुबोध शैली में परिचय देने वाले साहित्य की आवश्यकता का तीव्रता से अनुभव किया जा रहा था वहीं इस प्रकार के साहित्य के सृजन हेतु एक विस्तृत सर्वागपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्दों के समानान्तर मानक अंग्रेजी अर्थों के संकलन की आवश्यकता को महसूस किया गया, जिससे अंग्रेजी में अनुदित किये जाने वाले अथवा नये सिरे से सृजित किये जाने वाले साहित्य के पारिभाषिक शब्दों में एकरूपता एवं स्पष्टता हो। यह भी अनुभव किया गया है कि अनेकशः कई युवा अनुवादक अथवा उत्साही विद्वान सम्यक् पारिभाषिक शब्दों की अनुपलब्धता के कारण कार्य से विमुख हो जाते हैं और जैन जगत उनसे प्राप्त होने वाली कृति से वंचित हो जाता है। इससे जैन साहित्य की एवं जैनत्व की महती क्षति होती है और आंग्ल भाषा-भाषी पाश्चात्यजगत जैन दर्शन के वैशिष्ट्य से परिचित होने से वंचित रह
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