________________
जैनधर्म एवं तीर्थंकर महावीर स्वामी
भारत की धरती पर प्राचीन काल से प्रचलित अनेकानेक धपा में प्राचीनतम धर्म के रूप में माना जाने वाला है-जैनधर्म जो शाश्वत और अनादिनिधन माना जाता है तथा विशेषरूप से जितेन्द्रियता पर आधारित है। 'कमारातीन् जयति इति जिन:' एवं 'जिनोदेवता अस्य इति जैन:' अर्थात जो कर्म शत्रुओं को जीते वह 'जिन' है एवं उनके उपासक 'जैन' कहलाते हैं। इस व्याख्या के अनुसार सभी जैनधर्म को धारण कर सकते हैं, इसलिए यह धर्म सार्वभौम एवं सर्वोदयी है अर्थात् सबका हित करने वाला है।
इस धर्म की मान्यतानुसार सृष्टि का कर्ता कोई महासत्ताधारी ईश्वर नहीं है अपितु प्रत्येक जीवात्मा अपने-अपने कमों का कर्ता-भोक्ता स्वयं होता है। वह जब कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त कर भाक्ष चला जाता है तो इधर, भगवान, चस्मा आदि नामों से जाना जाता है और ऐसा ईश्वर जैन मान्यतानुसार पुनः संसार में कभी जन्प नहीं धारण करता है, प्रत्युत् लोक शिखर पर निर्मित एक सिद्धशिला नामक सर्वसुखसम्पन्न स्थान पर सदा-सदा के लिए अनन्तसुख में निमग्न रहता है। ईश्वर के प्रति यही मान्यता जैनधर्म की ईश्वरवादिता एवं आस्तिकता समझी जाती है। ईश्वर सृष्टि कर्तृत्व एवं पुनः पुन: उनके संसार में जन्मधारण करने की बात जैन-धर्म में दोषास्पद मानी गई है।
जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक चतुर्थ काल में 24 तीर्थकर होते हैं जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करके असंख्य प्राणियों को मोक्षमार्ग पर आरूढ़ करते हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप सिद्धान्त तीर्थकर भगवन्तों की शिक्षाओं का मूल केन्द्र है। समस्त जीवों को आत्मयत् मानकर शारीरिक, मानसिक, वाचनिक सभी प्रकार की हिंसाओं का पूर्णत: अथवा आंशिकरूप से त्याग जैनधर्म के अनुयायियों के लिए विशेषरूप से निर्दिष्ट है। वर्तमान काल में जैनधर्म का प्रवर्तन करने वाले प्रथम तीर्थकर हुए-आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव एवं 24वें अर्थात् अंतिम तीर्थकर हुए भगवान महावीर स्वामी जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को 'जिओ और जीने दो' का अमर संदेश प्रदान किया।
आज से 2600 वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के गर्भ से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान महावीर का जन्म हुआ था। वह कुण्डलपुर नगरी भगवान महावीर के जन्म के समय 15 माह तक रत्नवृष्टि एवं महान जन्मोत्सव से विशेष गरिमा को प्राप्त हुई। 'वीर', 'चर्द्धमान', 'सन्मति' एवं 'महावीर' नाम भगवान को कुण्डलपुर नगरी में प्राम हुए। बाल ब्रह्मचारी भगवान ने 30 वर्ष की अवस्था में विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली तथा 12 वर्ष तक घनघोर तपस्या की। उज्जयिनी में सद्र द्वारा किये गये भयंकर उपसर्ग को समताभावपूर्वक सहन करके 'महतिमहावीर' नाम से विभूषित भगवान ने जृम्भिका ग्राम में ऋजुकूला नदी के तट पर वैशाख शुक्ला दशमी को केवलज्ञान प्राप्त किया। समवसरण में विराजमान भगवान की प्रथम दिव्यध्वनि 66 दिन के पश्चात् गौतम गणधर के आने पर राजगृही में खिरी। 30 वर्ष तक असंख्य प्राणियों को धर्मामृत का पान कराने के पश्चात् कार्तिक कृष्णा अमावस्या को "पावापुरी" के जलपंदिर से तीर्थकर महावीर ने मोक्षधाम को प्राप्त किया। वर्तमान बिहार प्रदेश के नालंदा जिले में अवस्थित त्रिवेणी तीर्थ-कुण्डलपुर, राजगृही, पावापुरी युग-युग तक भव्यजीवों का मोक्षमार्ग प्रशस्त करते रहे, यही मंगल भावना है।
[22]