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________________ आराधनासमुच्चयम् ९० श्रुतज्ञान लब्धि व भावनारूप से दो-दो प्रकार का होता है अथवा प्रमाण व नय के भेद से दो प्रकार का होता है। सकल वस्तु को ग्रहण करने वाले को प्रमाणरूप और वस्तु के एकदेश ग्रहण करने वाले को नयरूप होता है। प्रावचन, प्रवचनीय, प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आत्मा, परम्परालब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रवचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचन संनिकर्ष, नयविधि, नयान्तर विधि, भंगविधि, भंगविधि विशेष, पृच्छाविधि, पृच्छाविधि विशेष तत्त्व, भूत, भव्य, भविष्यत्, अवितथ, अविहत, वेद, न्यास, शुद्ध, सम्यक्दृष्टि, हेतुवाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गवाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अयमार्ग, यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व ये श्रुतज्ञान के पर्याय नाम हैं। यह श्रुतज्ञान सब नयों के विषय के अस्तित्व का विधायक है, इसलिए इसको विधि भी कहते हैं। शब्दलिंगज श्रुतज्ञान के दो भेद - अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट होते हैं अथवा दो, अनेक भेद और बारह भेद हैं। अंगश्रुत यह गुणनाम है, क्योंकि कोटीमों काल के समसा द्रव्यों का पांचों को अंगति' अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है, वह अंग है। इस प्रकार अंग शब्द सिद्ध होता है। 'अंग्यते' अर्थात् मध्यम पदों के द्वारा जो लिखा जाता है, वह अंग कहलाता है। अथवा समस्त श्रुत के एक - एक आचारादि रूप अवयव को अंग कहते हैं। ऐसे अंग शब्द की निरुक्ति है। आचारांग आदि १२ प्रकार का ज्ञान अंग प्रविष्ट कहलाता है। गणधरदेव के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धिबल वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंगबाह्य कहलाते हैं। __ अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं - आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृतदश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। आचारांग - आचरते मोक्षमार्गमाराधयन्ति अस्मिन्ननेनेति वा आचारः। जिसमें मोक्षमार्ग का आचरण किया जाता है - मोक्षमार्ग की आराधना की जाती है, वह आचारांग है अर्थात् जिसमें मुनिराज के आचरण का कथन है। सूत्रकृतांग - सूत्रैः कृतं करणं क्रियाविशेष: वर्ण्यते यस्मिन् तत् सूत्रकृतं। ज्ञान, विनय आदि निर्विघ्न अध्ययन क्रिया का एवं प्रज्ञा, प्रभा, कल्पाकल्प, छेदोपस्थापना आदि व्यवहार धर्मक्रिया का तथा स्वसमय और परसमय का कथन करने वाला सूत्रकृतांग है। जिसमें सम्पूर्ण द्रव्यों का एक से लेकर जितने विकल्प होते हैं, उनका कथन किया गया है। जैसे जीव द्रव्य एक है, संसारी और मुक्त के भेद से दो प्रकार का है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की अपेक्षा तीन
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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