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________________ आराधनासमुच्चयम् ८३ अन्य के उपदेश पूर्वक वस्तु को ग्रहण करना उक्त है और स्वत: प्रत्यक्ष प्रगट वस्तु को ग्रहण करना निसृत है। इसी प्रकार किसी अन्य के द्वारा नहीं कहने पर भी संकेत या स्वयमेव वस्तु का स्वरूप समझ लेना अनुक्त है तथा वस्तु के एक भाग को देखकर दूसरे भाग को जान लेना अनिसृत है। संक्लेश परिणामों के अभाव में यथानुरूप श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमादि परिणामरूप कारणों के अवस्थित रहने से जैसा प्रथम समय में शब्द का ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है न कम होता है और न अधिक होता है, यह ध्रुव ग्रहण है। परन्तु पुन:पुन: संक्लेश और विशुद्धि में झूलने वाले आत्मा को यथानुरूप श्रोत्रेन्द्रिय का सान्निध्य रहने पर भी उसके आवरण का किंचित् उदय रहने के कारण पुनःपुन: प्रकृष्ट वा अप्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षगोम.प पनि न होने से 14 मा अधुप प्रभा होता है। अर्थात् कभी बहुत शब्दों को जानता है और कभी अल्प को, कभी बहुत प्रकार के शब्दों को जानता है और कभी एक प्रकार के शब्द को, कभी शीघ्रता से शब्द को जान लेता है तो कभी देर से, कभी प्रगट शब्द को जानता है और कभी अप्रगट को भी, कभी उक्त को ही जानता है और कभी अनुक्त को भी। अथवा निरन्तर रूप से वस्तु को ग्रहण करना ध्रुव अवग्रह है और इससे विपरीत ग्रहण को अध्रुव अवग्रह कहते हैं। यह वही है - इस प्रकार का ग्रहण ध्रुव अवग्रह है और वह यह नहीं है इस प्रकार के अवग्रह को अध्रुव कहते हैं। ये अवग्रह के १२ भेद हैं। इसी प्रकार ईहा, अवाय और धारणा के भी बारह - बारह (१२) भेद जानने चाहिए। ये ४८ (अड़तालीस) भेद एक इन्द्रिय सम्बन्धी हैं, इसी प्रकार शेष चार इन्द्रियों और मन के भेदों को गुणा करने पर कुल २८८ भेद होते हैं। अवग्रह के दो भेद हैं अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह । व्यक्त ग्रहण के पूर्व जो अव्यक्त ग्रहण होता है, वह व्यञ्जनावग्रह है। अथवा अंज् धातु व्यक्त अर्थ में आती है। 'वी' नहीं है ' अंज्' प्रगटता जिसमें उसको व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। व्यक्त अर्थग्रहण का नाम अर्थावग्रह है और अव्यक्त अर्थ को ग्रहण करना व्यंजनावग्रह है। विशद और अविशद के भेद से भी अवग्रह दो प्रकार का है। निर्मल अवग्रह जिसके अनन्तर ईहा आदि ज्ञान उत्पन्न हो सकते हैं, उसको विशदावग्रह या अर्थावग्रह कहते हैं और जिसके अनन्तर ईहा आदि ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं उसको अविशद अवग्रह कहते हैं। व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता इसलिए इसके ४८ भेद होते हैं। २८८ में ४८ भेद मिलाने पर ३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं। अथवा मतिज्ञान के दो, तीन, चार, पाँच आदि विकल्पों की अपेक्षा संख्यात एवं असख्यात भेद भी होते हैं। सामान्यतः मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जनित पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा मूर्तिक और अमूर्तिक पदार्थों को विकल्पसहित या भेदसहित जानता है, वह मतिज्ञान है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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