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________________ आराधनासमुच्चयम् ७९ अन्वयार्थ यत् जो निश्चयेन निश्चय से । पदार्थान् पदार्थों को। जानाति जानता है। वा अथवा । येन - जिसके द्वारा पदार्थ । ज्ञायते जाना जाता है। वा अथवा । ज्ञप्ति: - ज्ञप्ति होती है। तत् - वह । ज्ञानं - - ज्ञान है । तत् वही ताणा - प्रमाण है - अर्थ - जो जानता है, वह ज्ञान है; यह कर्तृसाधन है। जिसकी सहायता से आत्मा पदार्थों को जाता है वा जिसके द्वारा जाना जाता है, वह ज्ञान है। यह करण साधन है। जानना मात्र ज्ञान है, यह भाव साधन है। एवंभूत नयकी दृष्टि से ज्ञानक्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है क्योंकि वह ज्ञानस्वभावी है । यद्यपि ज्ञान और आत्मा में संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद है तथापि इनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा भेद नहीं है। ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है। गुण गुणी में प्रदेशभेद नहीं होता। अतः आत्मा ही ज्ञान है। - हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ होता है, वह प्रमाण कहलाता है, वह वास्तव ज्ञान ही है। अतः ज्ञान ही प्रमाण है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी 'तत्प्रमाणे ' (१ / १०) ज्ञान को ही प्रमाण कहा 'है। ज्ञान के भेदों का कथन तद् वै मतिश्रुतावधिधीपर्ययकेवलाख्यभेदेन । भिन्नं पञ्चविकल्पं भवतीति वदन्ति विद्वांसः ॥ ५४ ॥ - - अन्वयार्थ वैं निश्चय से अथवा ( वै शब्द ) पादपूर्ति हेतु भी है । तत् - वह ज्ञान | मतिश्रुतावधिधीपर्ययकेवलाख्यभेदेन मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल नाम के भेद से। भिन्नं - भिन्नं । पंचविकल्पं - पाँच विकल्पवाला । भवति होता है। इति इस प्रकार । विद्वांसः - विद्वान् लोग (ज्ञानीजन) । वदन्ति - कहते हैं। अर्थ - ज्ञानियों का कथन है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भेद से ज्ञान पाँच प्रकार का है। अज्ञान के नाशक मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान रूप पाँच प्रकार ज्ञान की भावना से जीव स्वर्ग और मोक्ष सुख का भाजन होता है। सम्यग्ज्ञान आराधना से अपने जीवन में अवश्य ही वह ज्योति प्रकट होगी जिसके प्राप्त होने से नियम से स्वात्मोपलब्धि, शिवसौख्यसिद्धि की प्राप्ति होगी । आत्मशांति का कारण ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। सारे विकल्प कलंक मिटाने का उपाय सम्यग्ज्ञान ही है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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