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________________ आराधनासमुच्चयम् ७८ अनादिकालीन है अर्थात् एकेन्द्रिय निगोद पर्याय में जीव अनादि काल से रह रहा है, अतः अचक्षु दर्शन अनादि है। जो भव्य संसारावस्था को छोड़कर मुक्तिपद को प्राप्त कर लेता है, उसकी अपेक्षा यह सान्त है। जो अभव्य हैं, कभी मोक्षपद प्राप्त नहीं करेंगे, उनकी अपेक्षा अनन्त है। अतः अचक्षुदर्शन अनादि, सान्त वा अनन्त है। चतुर्थ केवलदर्शन सादि अनन्त है। क्योंकि केवलदर्शन, अनादिकालीन तो है नहीं इसलिए सादि है और इसका नाश भी नहीं होता, इसलिए अनन्त है। इस प्रकार आचार्यदेव ने ज्ञान आराधना के प्रकरण में दर्शनोपयोग का कथन किया है क्योंकि दर्शन भी चेतनागुण का भेद है। अत: ज्ञान आराधना में गर्भित है। जीव की चैतन्यशक्ति दर्पण की स्वच्छत्व शक्तिवत् है। जैसे बाह्य पदार्थों के प्रतिबिम्बों के बिना का दर्पण पाषाण है, उसी प्रकार ज्ञेयाकारों के बिना की चेतना जड़ है। दर्पण की निजी स्वच्छतावत् चेतन का निजी प्रतिभास दर्शन है और दर्पण के प्रतिबिम्बोंवत् चेतना में पड़े ज्ञेयाकार ज्ञान हैं। जिस प्रकार प्रतिबिम्ब - विशिष्ट - स्वच्छता परिपूर्ण अपंथ है, उसी प्रकार ज्ञान-विशिष्ठ दर्शन परिपूर्ण चेतना है। दर्शन रूप अन्तरचित्प्रकाश तो सामान्य व निर्विकल्प है और ज्ञानरूप बाह्य चित्प्रकाश विशेष व सविकल्प है। यद्यपि दर्शन सामान्य होने के कारण एक है, परन्तु सामान्य जन को समझाने के लिए उसके चक्षु आदि भेद कर दिये गये हैं। जिस प्रकार दर्पण को देखने पर तो दर्पण व प्रतिबिम्ब दोनों युगपत् दिखाई देते हैं, परन्तु पृथक्-पृथक् पदार्थों को देखने से आगे - पीछे दिखाई देते हैं। इसी प्रकार आत्मसमाधि में लीन महायोगियों को तो दर्शन व ज्ञान युगपत् प्रतिभासित होते हैं, परन्तु लौकिकजनों को वे क्रम से होते हैं। यद्यपि सभी संसारी जीवों को इन्द्रियज्ञान से पूर्व दर्शन अवश्य होता है, परन्तु क्षणिक व सूक्ष्म होने के कारण उसकी पकड़ वे कर नहीं पाते। समाधिगत योगी उसका प्रत्यक्ष करते हैं। निज स्वरूप का परिचय या स्वसंवेदन दर्शनोपयोग से ही होता है, इसलिए सम्यग्दर्शन में श्रद्धा शब्द का प्रयोग न करके दर्शन शब्द का प्रयोग किया है। चेतना दर्शन व ज्ञान स्वरूप होने के कारण ही सम्यग्दर्शन को सामान्य और सम्यग्ज्ञान को विशेष धर्म कहा है। शंका - यदि छद्मस्थों का ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है तो मतिदर्शन, श्रुतदर्शन और मनःपर्यय दर्शन भी होना चाहिए? उत्तर - मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है, अतः चक्षु और अचक्षु दर्शन मतिदर्शन हैं क्योंकि चक्षु इन्द्रिय ज्ञान के पूर्व चक्षुदर्शन और शेष इन्द्रिय और मन से होने वाले मतिज्ञान के पूर्व अचक्षुदर्शन होता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, उसके पूर्व चक्षु, अचक्षु दर्शन होता है, अन्य दर्शन की आवश्यकता नहीं है। मन:पर्यय ज्ञान, ईहा मतिज्ञानपूर्वक होता है उसमें भी दर्शन की आवश्यकता नहीं है अर्थात् मति दर्शनहीं उसमें कारण है क्योंकि यह ज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। प्रमाण का लक्षण जानाति यत्पदार्थान् साकारं निश्चयेन तज्ज्ञानम् । ज्ञायन्ते वा येन ज्ञप्तिर्वा तत्प्रमाणाख्यम् ॥५३ ।।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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