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________________ आराधनासमुच्चयम् ७६ अर्थ - जो केवलज्ञान के विषय को प्रकाशित करने वाली आत्मा की ज्योति प्रगट होती है, उसको सर्वज्ञ भगवान केवलदर्शन कहते हैं। केवलदर्शनावरण कर्म के अत्यन्त क्षय हो जाने पर केवल आत्मशक्ति से मूर्त, अमूर्त द्रव्यों को सकल रूप से सामान्यत: अवलोकन करता है, प्रकाशित करता है, वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। बहुत जाति के, बहुत प्रकार के चन्द्र-सूर्य आदि के उद्योत तो परिमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं अर्थात् ये थोड़े ही पदाथों को अल्प परिमाण में प्रकाशित करते हैं, किन्तु केवलदर्शन रूप जो उद्योत है, वह लोक और अलोक को भी प्रकाशित करता है। सर्व चराचर जगत् को स्पष्ट देखता है। ___ज्ञान और दर्शन में कार्य-कारण भाव का कथन दृक्पूर्व एव बोधः कारणकार्यत्वदर्शनात्तु तयोः । तदपि च्छास्थानां क्रमोपयोगप्रवृत्ते: स्यात् ॥४८॥ अन्वयार्थ - तयोः - दर्शन और ज्ञान में। कारणकार्यत्वदर्शनात् - कारण - कार्य भाव दृष्टिगोचर होने से। दृक्पूर्व - दर्शन पूर्वक। एष - ही। बोधः - ज्ञान होता है। तदपि - फिर भी। छद्मस्थानां - छयस्थों के। क्रमोपयोगप्रवृत्तेः - क्रम से उपयोग की प्रवृत्ति । स्यात् - होती है। ___ अर्थ - दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है क्योंकि दर्शन और ज्ञान में कारण - कार्यभाव देखा जाता है अर्थात् ज्ञान की उत्पत्ति में दर्शन कारण होता है, ज्ञान उसका कार्य है। वह उपयोग छद्मस्थ अवस्था में क्रम से प्रवृत्त होता है। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन क्षयोपशमयुक्त होने से प्रथम दर्शन होता है, तदनन्तर ज्ञान होता है अर्थात् छद्म ज्ञानावरण और दर्शनावरण को कहते हैं। दर्शनावरण और ज्ञानावरण से युक्त जीव को छद्मस्थ कहते हैं। उस छद्यस्थ के दर्शनोपयोग एवं ज्ञानोपयोग एक साथ नहीं होते हैं। क्रम से प्रथम दर्शनोपयोग होता है, तत्पश्चात् ज्ञानोपयोग होता है। केवली दर्शनोपयोग की व्यवस्था केवलदर्शनबोधौ समस्तवस्तुप्रभासिनौ युगपत् । दिनकृत्प्रकाशतापवदावरणाभावतो नित्यम् ॥४९॥ अन्वयार्थ - दिनकृत्प्रकाशतापवत् - सूर्य के प्रकाश और ताप के समान। आवरणाभावत: - आवरण का अभाव हो जाने से । समस्तवस्तुप्रभासिनौ - समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाले। केवलदर्शनबोधौ - केवलदर्शन और ज्ञान । युगपत् - एक साथ होते हैं वे। नित्यं - नित्य हैं। ____ अर्थ - जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर उसका प्रकाश और ताप दोनों एक साथ होते हैं, उसमें समयभेद नहीं है; उसी प्रकार पूर्ण रूप से दर्शनावरण और ज्ञानावरण का अभाव हो जाने से, एक साथ तीन लोक के चराचर पदार्थों का अवलोकन करने वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोग एक साथ ही होते हैं। छद्मस्थ जीवों के पहले दर्शन और फिर ज्ञान होता है, वैसे केवली के क्रमपूर्वक दर्शन और ज्ञान नहीं होते, एक साथ ही होते हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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