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________________ आराधनासमुच्चयम् ६० १. इन्द्रियवशात - पाँच इन्द्रियों के पाँच विषयों की अपेक्षा इन्द्रियवशात पाँच प्रकार का है। मनोहर विषयों में आसक्त होकर और अमनोहर विषयों में द्विष्ट होकर जो मरण होता है, वह श्रोत्र आदि इन्द्रियों व मन सम्बन्धी वशार्त्तमरण है। २. वेदनावशार्स - शारीरिक व मानसिक सुखों में अथवा दुःखों में अनुरक्त होकर मरने से वेदनावशार्त्त सात व असात के भेद से दो प्रकार का होता है। ३. कषायवशात - कषायों के क्रोधादि भेदों की अपेक्षा कषायवशात चार प्रकार का है। स्वयम् में दूसरे में अथवा दोनों में उत्पन्न हुए क्रोध के वश मरना क्रोधकषायवशाल है। इसी प्रकार आठ मदों के वश मरना मान वशाल है, पाँच प्रकार की माया से मरना मायावशाल और परपदार्थों में ममत्व के वश मरना लोभ वशात है। ४. नोकषायवशात - हास्य, रति, अरति आदि से जिसकी बुद्धि मूढ़ हो गई है, ऐसे व्यक्ति का मरण नोकषायवशात मरण है। इस मरण को बालमरण में अन्तर्भूत कर सकते हैं। दर्शनपंडित, अविरत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव भी इस मरण को प्राप्त हो सकते हैं। उनका यह मरण बालपण्डित मरण अथवा दर्शनपण्डितमरण समझना चाहिए। विप्राणस व गृद्धपृष्ठ नाम के दोनों मरणों का न तो आगम में निषेध है और न अनुज्ञा । दुष्काल में अथवा दुर्लध्य जंगल में, दुष्ट राजा के भय से, तिर्यंचादि के उपसर्ग में, एकाकी स्वयं सहन करने को समर्थ न होने से, ब्रह्मचर्य के नाश से, चारित्र में दोष लगने का प्रसंग आया हो तो संसारभीरु व्यक्ति कर्मों का उदय उपस्थित हुआ जानकर जब उसको सहन करने में अपने को समर्थ नहीं पाता है और न ही उसको पार करने का कोई उपाय सोच पाता है, तब वेदना को सहने से परिणामों में संक्लेश होगा और उसके कारण रत्नत्रय की आराधना से निश्चय ही मैं च्युत हो जाऊँगा, ऐसी निश्चलमति को धारते हुए, निष्कपट होकर चारित्र और दर्शन में निष्कपटता धारण कर धैर्य युक्त होता हुआ, ज्ञान का सहारा लेकर निदान रहित होता हुआ अर्हन्त भगवान् के समीप आलोचना करके विशुद्ध होता है। निर्मल लेश्याधारी वह व्यक्ति अपने श्वासोच्छ्वास का निरोध करता हुआ प्राण त्याग करता है ऐसे मरण को विप्राणसमरण कहते हैं। उपर्युक्त कारण उपस्थित होने पर वस्त्र ग्रहण करके जो प्राण त्याग किया जाता है वह गृद्धपृष्ठमरण है। इन १७ प्रकार के मरणों में दो मरण मुख्य हैं आवीचि और तद्भवमरण । क्योंकि सारे मरणों का आधार ये दो मरण ही हैं। इनका सर्व मरणों के साथ सम्बन्ध है। इनमें आवीचि मरण तो निरंतर होता ही रहता है, जब तक मोक्ष नहीं होता तब तक कोई प्राणी ऐसा नहीं है वा कोई समय ऐसा नहीं है, जिसमें प्राणियों का आवीचि मरण न हो। इसलिए इस मरण को नित्य मरण भी कहते हैं। इस श्लोक में तद्भव मरण का कथन है। तद्भव मरण के लिए कुछ स्थान निषिद्ध हैं। जैसे प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि, आहारकमिश्र, उपशम श्रेणी में आरूढ़ अपूर्व गुणस्थान के प्रथम समय में मरण नहीं होता है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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