SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् ०५८ अन्वयार्थ - अथ - सादि मिथ्यादर्शन का अन्तर्मुहूर्त वा अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल व्यतीत हो जाने पर। तस्य - सम्यमिथ्यात्व का। उदयोत्थितैः - उदय से उत्पन्न । मिश्रश्रद्धानकरैः - मिश्र श्रद्धान को करने वाले। क्षायोपशमाह्वयैः - क्षायोपशमिक नामक । भावैः - भावों के द्वारा (मिश्र श्रद्धान भावों के द्वारा)। सम्यमिथ्यात्वं - सम्यमिथ्यात्व नामक तीसरे गुणस्थान को। गतवान् - प्राप्त हो जाता है और वहाँ पर। अन्तर्मुहूर्तकालं - अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त। आस्ते - रहता है। तद्भवमरणादिवर्जितः - तद्भव मरण से रहित। तस्मात् - उस तीसरे गुणस्थान से। च्युतवान् - च्युत हो जाता है। दर्शनमोह - द्वितीयान्यतरोदयं - दर्शन - मोहनीय के द्वितीय (सम्यमिथ्यात्व) से अन्यतर (मिथ्यात्व वा सम्यक्त्व प्रकृति) के उदय को। उपैति - प्राप्त हो जाता है। वयार्थ · ड्रास श्लेव में शिक्षणास्थान का स्वरूप, मिश्रगुणस्थान में होने वाले भाव, उसका काल, उसमें निषिद्ध कार्य और उससे च्युत हो जाने के विधान का कथन किया है। गुणस्थान औदयिक आदि भावों से होते हैं। मिश्रगुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव है। सम्यक्त्व-मिथ्यात्व कर्म के उदय से श्रद्धान-अश्रद्धानात्मक, शबलित या मिश्रित भाव होते हैं। उसमें जो श्रद्धान का अंश है, वह सम्यक्त्व का अवयव है। उसे सम्यक्त्व मिथ्यात्व कर्म का उदय नष्ट नहीं कर सकता, इसलिए सम्यमिथ्यात्व भाव क्षायोपशमिक भाव है। अर्थात् सम्यक्त्व मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होने पर अवयवी रूप सम्यग्दर्शन गुण का तो अभाव रहता है, परन्तु सम्यक्त्व का अवयवरूप अंश प्रकट रहता है। यद्यपि जात्यन्तरभूत सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती है तथापि वह सम्यक्त्व अवयव रूप अंश का विधात नहीं कर सकती इसलिए यह क्षायोपशमिक भाव है। इस श्लोक में "क्षायोपशमिकायैः" इस पद से क्षायोपशमिक भाव को सूचित किया है। शंका - इस सम्यङ्मिथ्यात्व प्रकृति में सम्यग्दर्शन का अंश प्रगट कैसे रह सकता है ? उत्तर - अभेदविवक्षा से यद्यपि सम्यङ्मिथ्यात्व प्रकृति जात्यंतर है, न सम्यक्त्व रूप परिणाम है और न मिथ्यात्व रूप परिणाम है। जिस प्रकार अच्छी तरह मिले हुए दही और गुड़ को पृथक्-पृथक् करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार सम्यङ्मिथ्यात्व के उदय से सम्यग् और मिथ्यात्व रूप मिश्र परिणाम होते हैं। अर्थात् जात्यन्तर रूप सर्वघाति सम्यड्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप या मिथ्यात्व रूप परिणाम न होकर मिश्र रूप परिणाम होता है। तथापि भेदविवक्षा से उसमें सम्यग्दर्शन का अंश प्रकट है। यदि इसमें सम्यग्दर्शन का अंश प्रगट नहीं माना जायेगा तो सम्यङ्मिथ्यात्व प्रकृति को जात्यन्तर मानने में विरोध आता है अर्थात् उसको मिथ्यात्व ही मानना चाहिए, सम्याङ्मथ्यात्व नहीं। यह सम्यग् मिथ्यात्व रूपी क्षायोपशमिक भाव सम्यग् मिथ्यात्व रूप प्रकृति के उदय से उत्पन्न होता है। इसमें मिश्र श्रद्धान को कराने वाले भाव होते हैं। जैसे क्षीणाक्षीण मद शक्ति वाले कोंदु के उपभोग से कुछ मिला हुआ मद परिणाम होता है। उसी प्रकार सम्यमिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ का श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिला हुआ परिणाम होता है, इसलिए इसको मिश्रश्रद्धान वाला कहा है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy