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________________ आराधनासमुच्चयम् ४४ HAMARRIAL उपशांत काल में इन तीनों प्रकृतियों में से किसी भी प्रकृति की स्थिति का उदय नहीं रहता है तथा एक ही अनुभाग में इन तीनों कर्मांशों के सभी स्थितिविशेष नियम से अवस्थित रहते हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि को पाँच प्रकृतियों के उपशमन से उपशम सम्यग्दर्शन होता है और सादि मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के वा पाँच प्रकृतियों के उपशमन से उपशम सम्यग्दर्शन होता है अर्थात् जिस सादि मिशादृष्टि के सम्यम्न और ग़ायक मिथ्याच प्रकृति का सत्त्व है, उस मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशमन से सम्यग्दर्शन होता है, परन्तु जिस प्राणी ने सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना कर दी है उसके पाँच प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यग्दर्शन होता है। दर्शनमोह का उपशमन करने वाला जीव उपद्रव वा उपसर्ग आने पर भी उनका उपशम किये बिना नहीं रहता है। इस अवस्था में मरण भी नहीं होता है। ___ उपशम सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। जैसे कतक फल आदि के संयोग से कीचड़ नीचे बैठ जाता है और जल स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार अप्रशस्त उपशमन के द्वारा सात या पाँच प्रकृति का उपशमन हो जाने से उपशम सम्यग्दर्शन निर्मल हो जाता है। उपशम सम्यग्दर्शन का प्रारंभ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है, परन्तु द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होता है। उपशम चारित्र के सम्मुख हुआ वेदक सम्यग्दृष्टि जीव स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में तीन करण कर के अनन्तानुबंधी की चार प्रकृतियों का विसंयोजन करता है। तदनन्तर अन्तर्मुहर्तकाल पर्यन्त हजारों बार प्रमत्त-अप्रमत्त में गमनागमन कर स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में विश्राम करता है। उसके बाद पुन: तीन करण करके एक साथ तीन दर्शनमोहनीय का उपशम करता है। वहाँ अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समान गुणसंक्रमण के बिना अन्य स्थितिकाण्डघात, अनुभागकाण्डघात, गुणश्रेणीनिर्जरा आदि सर्व विधान जानने चाहिए। इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के करण-काल में अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन के समय भी सर्व स्थितिकाण्ड आदि पूर्ववत् जानने चाहिए। अनिवृत्तिकरण काल का असंख्यातवाँ भाग अवशेष रहने पर सम्यक्त्व मोहनीय के द्रव्य का अपकर्षण कर उपरितन स्थिति में गुणश्रेणी आयाम में और उदयावलि में देता है। यहाँ पर उदयावलि में दिया १. जिन प्रकृतियों के प्रदेशों में अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण होना शक्य है परन्तु उदयावली में नहीं आते हैं, वह अप्रशस्त उपशमन है। २. स्वकीय स्वरूप को छोड़कर अप्रत्याख्यानादि रूप हो जाना अनन्तानुबंधी का विसंयोजन या उपशम है और उदय में नहीं आना ही दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का उपशम है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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