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________________ आराधनासमुच्चयम् ३८ है। इस प्रकार संख्यात हजार बार स्थिति बंधापसरण के करने पर अधःप्रवृत्तकरण का काल समाप्त हो जाता है। अधःप्रवृत्त यह नाम अन्तदीपक है। इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने से पूर्व तक मिथ्यादृष्टि के पूर्वोत्तर समयवर्ती परिणामों में जो सदृशता पायी जाती है, उसकी अध:प्रवृत्त संज्ञा है। इस अध:प्रवृत्तकरण में स्थित प्राणी के स्थिति काण्डघात, अनुभाग काण्डघात, गुणश्रेणी निर्जरा और गुणसंक्रमण नहीं होते हैं। क्योंकि इन अध:करण परिणामों में पूर्वोक्त चतुर्विध कार्यों के उत्पादन करने की शक्ति का अभाव है। अपूर्वकरण का लक्षण करण शब्द का अर्थ परिणाम है और जो पूर्व अर्थात् पहले नहीं हुए, उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसमें विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्नसमयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक समय में होने वाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। इसमें एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश, विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं, परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में तो सर्वथा असमानता ही है, समानता नहीं है, क्योंकि इस करण में अध:प्रवृत्तकरण के समान अनुकृष्टि रचना नहीं है। ___ इन अपूर्वकरण परिणामों के द्वारा चार आवश्यक कार्य होते हैं। गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्डन और अनुभाग खण्डन । इन परिणामों के द्वारा अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर गुणसंक्रमण पूर्ण होने के काल पर्यन्त स्थितिबंधापसरण होते हैं। यद्यपि स्थितिबंधापसरण प्रायोग्यलब्धि में भी होता है तथापि प्रायोग्यलब्धि में सम्यग्दर्शन होने का नियम नहीं है। इसलिए इसको यहाँ ग्रहण नहीं किया है। गुणश्रेणी निर्जरा कर्मप्रदेश बंध में होती है अर्थात् प्रतिक्षण गुणाकार रूप से कर्मप्रदेशों का झरन, गलन होना गुणश्रेणी निर्जरा है। गुणसंक्रमण प्रकृतियों में होता है। प्रतिक्षण अपूर्वकरण परिणामों के द्वारा अशुभ प्रकृतियों का शुभ प्रकृतियों में संक्रमण होता है। अपूर्वकरण परिणामों के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों की स्थिति का हास होता है, इसको स्थितिकाण्डघात कहते हैं। कर्मों की फलदानशक्ति का नाम अनुभाग है। उनमें अशुभ कर्मप्रकृतियों की फलदान शक्ति का ह्रास (घात) होता है क्योंकि शुभ कर्म प्रकृतियों के अनुभागखण्डन करने का सामर्थ्य अपूर्वकरण में नहीं है, अपितु शुभ कर्म प्रकृतियों का अनुभाग विशेष होता है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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