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________________ आराधनासमुच्चयम् . ३५७ जिय ऋद्धि मे मनि के क्षेत्र में नौगदिक ली लाधाएँ और अकाल एवं महायुद्धादि नहीं होते हैं, वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है। वारित्र मोहनीय का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जो ऋद्धि दुःस्वप्न को नष्ट करती है तथा जिस ऋद्धि के आविर्भूत होने पर महर्षिजन सब गुणों के साथ अघोर अर्थात् अविनश्वर ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है (रा.वा. तथा चा.सा. में इस लक्षण का निर्देश ही घोर गुण ब्रह्मचारी के लिए किया गया है।) घोर अर्थात् रौद्र हैं गुण जिनके वे घोरगुण कहे जाते हैं। प्रश्न - चौरासी लाख गुणों के घोरत्व कैसे सम्भव है ? उत्तर - घोर कार्यकारी शक्ति को उत्पन्न करने के कारण धोरत्व सम्भव है। ब्रह्म का अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि वह शान्ति के पोषण हेतु है। अघोर अर्थात् शान्त हैं गुण जिसमें वह अघोरगुण है। अघोर गुण ब्रह्म (चारित्र) का आचरण करने वाले अघोरगुणब्रह्मचारी कहलाते हैं। (भावार्थः अघोर शान्त को कहते हैं। जिनका ब्रह्म अर्थात् चारित्र शान्त है उनको अघोरगुणब्रह्मचारी कहते हैं। ऐसे मुनि शान्ति, पुष्टि के कारण होते हैं, इसलिए उनके तपश्चरण के माहात्म्य से उपर्युक्त ईति, भीति, युद्ध व दुर्भिक्षादि शान्त हो जाते हैं।) । गुण और पराक्रम के एकत्व नहीं है, क्योंकि गुण से उत्पन्न हुई शक्ति की पराक्रम संज्ञा है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से मन, वचन और काय से बलिष्ठ ऋषि के बहुत प्रकार के उपवासों द्वारा सूर्य के समान दीप्ति अर्थात् शरीर की किरणों का समूह बढ़ता है, वह दीप्त तप ऋद्धि है। (धवला में यह और कहा है कि उनके केवल दीप्ति नहीं बढ़ती है, किन्तु बल भी बढ़ता है। इसलिए उनके आहार भी नहीं होता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है। यदि कहा जाय कि भूख के दुःख को शान्त करने के लिए भोजन करते हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनके भूख के दुःख का अभाव है।) तपी हुई लोहे की कड़ाही में गिरे हुए जलकण के समान जिस ऋद्धि से खाया हुआ अन्न धातुओं सहित क्षीण होता है, अर्थात् मल-मूत्रादि रूप परिणमन नहीं करता है, वह निज ध्यान से उत्पन्न हुई तप्त 'तप ऋद्धि' है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि चार सम्यग्ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यय) के बल से मन्दरपंक्ति प्रमुख सब ही महान् उपवासों को करता है, वह 'महातप ऋद्धि' है। जो अणिमादि आठ गुणों से सहित हैं, जलचारणादि आठ प्रकार के चारणगुणों से अलंकृत हैं, प्रकाशमान शरीर प्रभा से संयुक्त हैं, दो प्रकार की अक्षीण ऋद्धि से संयुक्त हैं, सर्वोषध स्वरूप हैं, पाणिपात्र में गिरे हुए आहार को अमृत स्वरूप से पलटाने में समर्थ हैं, समस्त इन्द्रों से भी अनन्तगुणे बल के धारक हैं, आशीविष और दृष्टिविष लब्धियों से समन्वित हैं, तप्त तप ऋद्धि से संयुक्त हैं, समस्त विद्याओं के धारक हैं तथा मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ज्ञानों से तीन लोकों के व्यापार को जानने वाले हैं, वे मुनि
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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