________________
आराधनासमुच्चयम् ३३५६
जीवों के परिहार की कुशलता की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। पत्र, अंकुर, तृण और प्रवाल आदि पर से संचार करने वालों का पुष्यचारणों में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि हरितकाय जीवों के परिहार की कुशलता की अपेक्षा इनमें समानता है।
आकाशप्रदेशों के अनुसार गमन करना आकाशगमन या श्रेणीचारण ऋद्धि है। तपऋद्धि के उग्र तप आदि अनेक भेद हैं -
उग्रतप ऋद्धि के धारक दो प्रकार के हैं - उग्रोग्रतप ऋद्धि धारक और अवस्थित उग्रतप ऋद्धि । उनमें जो एक उपवास करके पारणा कर दो उपवास करता है, फिर (पश्चात्) पारणा कर तीन उपवास करता है; इस प्रकार एक अधिक वृद्धि के साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियों से रक्षित होकर उपवास करने वाला 'उग्रोग्रतप' ऋद्धि का धारक है। इसके उपवास और पारणाओं का प्रमाण लाने के लिए सूत्र में चार गाथाएँ दी हैं। जिनका भावार्थ यह है कि १४ दिन में १० उपवास व ४ पारणा आते हैं। इसी क्रम से आगे भी जानना (ति.प. ४/१०५०-५१) दीक्षा के लिए एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिन के अन्तर से ऐसा करते हुए किसी निमित्त से षष्ठ उपवास (बेला) हो गया। फिर (पूर्ववत् हो) उस षष्ठोपवास से बिहार करने वाले के (कदाचित्) अष्टमोपवास (तेला) हो गया। इस प्रकार दशमद्वादशम आदि क्रम से नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यन्त विहार करता है, वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धि का धारक कहा जाता है। तप का यह अनुष्ठान भी वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से होता है।
जिस ऋद्धि के बल से ज्वर और शूलादिक रोग से शरीर के अत्यन्त पीड़ित होने पर भी साधुजन दुर्धर तप सिद्ध करते हैं, वह घोर तप ऋद्धि है। उपवासों में छह मास का उपवास, अवमोदर्य तपों में एक ग्रास, वृत्तिपरिसंख्यान में चौराहे में भिक्षा की प्रतिज्ञा, रसपरित्यागों में उष्ण जल युक्त ओदन का भोजन, विविक्तशय्यासनों में वृक, व्याघ्र, तरक्ष, छवल्ल आदि श्वापद अर्थात् हिंसजीवों से सेवित सह्य, विन्ध्य आदि (पर्वतों की) अटवियों में निवास, कायक्लेशों में हिमालय आदि के अन्तर्गत देशों में, खुले आकाश के नीचे, अथवा वृक्षमूल में, आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तपों में भी उत्कृष्ट तप की प्ररूपणा करनी चाहिए। ये बारह प्रकार के ही तप कायरजनों को भयकारक (भयोत्पादक) हैं, इसी कारण घोर तप कहलाते हैं। यह तप जिनके होता है, वे घोर तप ऋद्धि के धारक हैं। बारह प्रकार के तपों की उत्कृष्ट अवस्था में वर्तमान साधु घोर तप करते हैं, यह तात्पर्य है। यह भी तपजनित (तप से उत्पन्न होने वाली) ऋद्धि ही है, क्योंकि बिना तप के इस प्रकार का आचरण बन नहीं सकता।
जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनिजन अनुपम एवं वृद्धिंगत तप से सहित, तीनों लोकों के संहार करने की शक्ति से युक्त, कंटक, शिला, अग्नि, पर्वत, धुआँ तथा उल्का आदि के बरसाने में समर्थ और सहसा सम्पूर्ण समुद्र के सलिल समूह को सुखाने की शक्ति से भी संयुक्त होते हैं, वह घोर-पराक्रम तप ऋद्धि है।