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आराधनासमुस्वयम् - ३५४
उत्तर - नहीं, क्योंकि नाना प्रकार के गुणों व ऋद्धियों से युक्त होने का नाम विक्रिया है, अतएव उन दोनों के विक्रियापने में कोई विरोध नहीं है।
जिस ऋद्धि के बल से शैल, शिला और मादि के १.५ में होकर आकाश के समान गमन किया जाता है, वह सार्थक नाम वाली अप्रतिघात ऋद्धि है। जिस ऋद्धि से अदृश्यता प्राप्त होती है, वह अन्तर्धान नामक ऋद्धि है और जिससे युगपत् बहुत से रूपों को रचता है, वह कामरूप ऋद्धि है।
इच्छित रूप के ग्रहण करने की शक्ति का नाम रूपित्व है।
चारण ऋद्धि क्रम से जलचारण, जंघाचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूमचारण, मेघचारण, धाराचारण, मर्कटतन्तुचारण, ज्योतिषचारण और मरुचारण इत्यादि अनेक प्रकार के विकल्प समूहों से विस्तार को प्राप्त है। इस चारण ऋद्धि के विविध भंगों से युक्त विभक्त किये हुए और भी भेद होते हैं। परन्तु उनके स्वरूप का कथन करने वाला उपदेश हमारे लिए नष्ट हो चुका है। नभस्तलगामिनी और चारणत्व के भेद से चारण ऋद्धि दो प्रकार की है।
जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी के भेद से चारण ऋद्धिधारक आठ प्रकार
जिस ऋद्धि के द्वारा कायोत्सर्ग अथवा अन्य प्रकार से स्थित होकर या बैठकर ऊपर जाता है, वह आकाशगामिनी ऋद्धि है।
पर्यकासन से बैठकर अथवा अन्य किसी आसन से बैठकर या कायोत्सर्ग शरीर से पैरों को उठाकर-रखकर तथा बिना पैरों के उठाये-रखे आकाश में गमन करने में जो कुशल होते हैं, वे आकाशगामी
आकाश में इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वत से घिरे हुए इच्छित प्रदेशों में गमन करने वाले आकाशगामी हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँ देवों व विद्याधरों का ग्रहण नहीं है।
चार अंगुल से अधिक प्रमाण में भूमि से ऊपर आकाश में गमन करने वाले ऋषि आकाशचारण कहे जाते हैं।
प्रश्न - आकाशचारण और आकाशगामी में क्या भेद है ?
उत्तर - चरण, चारित्र, संयम व पापक्रियानिरोध इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थात् निपुण है, वह चारण कहलाता है। तपविशेष से उत्पन्न हुई ऋद्धि के आकाशस्थित जीवों के (वध के) परिहार की अपेक्षा नहीं होती। सामान्य आकाशगामित्व की अपेक्षा जीवों के वधपरिहार की कुशलता से विशेषत: आकाशगामित्व के विशेषता पायी जाने से दोनों में भेद है।