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________________ आराधनासमुच्चयम् ३५३ वादित्व का लक्षण - जिस ऋद्धि के द्वारा शक्रादि के पक्ष को भी बहुत वाद से निरुत्तर कर दिया जाता है और पर के द्रव्यों की गवेषणा (परीक्षा) करता है, (अर्थात् दूसरों के छिद्र या दोष ढूँढता है) वह वादित्व ऋद्धि कहलाती है। अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप इस प्रकार के अनेक भेदों से युक्त विक्रिया नामक ऋद्धि तपोविशेष से श्रमणों को हुआ करती है। अथवा अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामरूपित्व - इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि आठ प्रकार की है। अणिमा विक्रिया - शरीर को अणु के बराबर करना अणिमा ऋद्धि है। इस ऋद्धि के प्रभाव से महर्षि अणु के बराबर छिद्र में प्रविष्ट होकर वहीं चक्रवर्ती के कटक और निवेश की विक्रिया द्वारा रचना करते हैं। शरीर को मेरु के बराबर करने को महिमा, शरीर को वायु से भी लधु (हलका) करने को लधिमा ऋद्धि कहते हैं। शरीर को मेरु से भी अधिक भारी करने को गरिमा कहते हैं। ___ भूमि पर स्थित रहकर अंगुलि के अग्रभाग से सूर्य-चन्द्रमादिक को तथा अन्य वस्तु को प्राप्त करना यह प्राप्ति ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से जल के समान पृथ्वी पर उन्मज्जन क्रिया करता है और पृथ्वी के समान जल पर भी गमन करता है, वह प्राकाम्य ऋद्धि है। ___ कुलाचल और मेरु पर्वत के पृथिवीकायिक जीवों को बाधा न पहुँचाकर उनमें, तपश्चरण के बल से उत्पन्न हुई गमनशक्ति को प्राकाम्य ऋद्धि कहते हैं। कोई कोई आचार्य, अनेक तरह की क्रिया, गुण वा द्रव्य के आधीन होने वाले सेना आदि पदार्थों को अपने शरीर से भिन्न अथवा अभिन्न रूप बनाने की शक्ति प्राप्त होने को प्राकाम्य कहते हैं। जिससे सब जगत् पर प्रभुत्व होता है, वह ईशित्व नामक ऋद्धि है और जिससे तपोबल द्वारा जीवसमूह वश में होते हैं, वह वशित्व ऋद्धि कही जाती है। ___ सब जीवों तथा ग्राम, नगर एवं खेड़े आदिकों को भोगने की शक्ति उत्पन्न होती है, वह ईशित्व ऋद्धि कही जाती है। मनुष्य, हाथी, सिंह एवं घोड़े आदिक रूप अपनी इच्छा से विक्रिया करने की (अर्थात् उनका आकार बदल देने की) शक्ति का नाम वशित्व है। ईशित्व व वशित्व विक्रिया में अन्तर - वशित्व का ईशित्व ऋद्धि में अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि अवशीकृतों का भी उनका आकार नष्ट किये बिना ईशित्वकरण पाया जाता है। प्रश्न - क्या ईशित्व और वशित्व के विक्रियापने विरोध सम्भव है ?
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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