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आराधनासमुच्चयम् ३३८
प्रतिष्ठापन समिति - मल-मूत्र क्षेपण करते समय उस स्थान को अच्छी तरह से देखकर मृदु पिच्छिका से अच्छी तरह प्रमार्जित करके मल-मूत्र करना।
सम्यकप्रकार से मन, वचन, काय रूप योगनिग्रह करना गुप्ति है। वह गुप्ति तीन प्रकार की है
मन को विषयवासना में नहीं जाने देना, आर्तरौद्र ध्यान से दूर कर धर्म एवं शुक्ल ध्यान में लीन करना मनोगुप्ति है।
सर्व प्रकार वचन बोलने को छोड़कर अन्तर्जल्प से भी मुक्त होना वचन गुप्ति है। काय सम्बन्धी चेष्टा को छोड़कर निश्चल काष्ठवत् स्थिर होना काय गुप्ति है।
सम्यग्दर्शन सहित यम-नियम का पालन करना, षट्काय के जीवों की रक्षा करना तथा विषयवासनाओं में दौड़ते हुए पंचेन्द्रिय और मन को वश में करना संयम है। इनका विस्तार पूर्वक कथन चारित्र आराधना में किया है।
लेश्या शुभ-अशुभ के भेद से दो प्रकार की है, जिनका कथन लेश्या के प्रकरण में किया है। उनमें कृष्ण, नील, कापोत ये तीन लेश्या अशुभ हैं। पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्या हैं, अशुभ लेश्या को छोड़कर शुभ लेश्या में प्रवृत्ति करना सल्लेश्य प्रवृत्ति है।
___ सांसारिक विषय-वासना को छोड़कर पंच परमेष्ठी के गुणों का चिंतन करना या आत्मस्वरूप में लीन होना ध्यान है। ध्यान का विस्तारपूर्वक कथन तप आराधना में किया है।
आत्मकल्याणकारी मार्ग में ध्यान प्रमुख है तथा ध्यान में सर्वप्रथम पंच परमेष्ठी का ध्यान है। अत: सर्वप्रथम मन को स्थिर या एकाग्र करने के लिए पंच परमेष्ठी का ध्यान प्रमुख है। पंच परमेष्ठी वाचक ३५ अक्षरों का चिंतन करना अथवा नाभि, हृदय, कण्ठ, मुख और मस्तक पर इन पंच परमेष्ठी वाचक असिआउसा का ध्यान करना चाहिए। यह सद् ध्यान चारित्र आराधना का उपाय है।
जिसका बार-बार चिंतन किया जाता है, उसको भावना कहते हैं। वे भावना अनित्यादि के भेद से १२ हैं जिनका कथन तप आराधना में विस्तारपूर्वक किया है।
____दर्शनविशुद्धि आदि १६ भावना तथा मैत्री आदि चार भावना चारित्र आराधना का उपाय है, जिनका कथन आगे सत्त्वादि भावना में करेंगे।
जो संसारी प्राणियों को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में पहुँचाता है, उसको धर्म कहते हैं। वा वस्तु स्वभाव को धर्म कहते हैं। अहिंसा परम धर्म है। वा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र धर्म है क्योंकि इन तीनों की एकता से ही संसार के दुःखों का नाश होता है।