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आराधनासमुच्चयम् + ३३७
अनेक प्रकार के अन्न-फलादि पदार्थों के देखने से, उनका बार-बार चिंतन करने से, जठराग्नि के प्रज्वलित होने से तथा असाता कर्म के उदीरण से जो खाने-पीने की, भोजन ग्रहण करने की इच्छा होती है, उसको आहार संज्ञा कहते हैं।
भयानक पदार्थ के देखने से, उसामा बार - बार चिंतन करने से, आंतरिक शक्ति के अभाव से तथा भय कर्म की उदीरणा होने से मानसिक आकुलता होती है, शरीर में कम्पन होता है, उसको भय संज्ञा कहते
है।
गरिष्ठ पदार्थ के सेवन करने से, कुशील पुरुषों की संगति से, कामोत्पादक गीत आदि के सुनने से, मन को विकृत करने वाली स्त्री-पुरुष सम्बन्धी कथाओं के सुनने से, शरीर को शृंगारित करने से तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद कर्म की उदीरणा होने से स्त्री एवं पुरुष के साथ रमण करने की अभिलाषा उत्पन्न होती है, उसको मैथुन संज्ञा कहते हैं।
क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य, भांड आदि परिग्रह के देखने से, उनका बार - बार चिंतन करने से तथा लोभ कषाय की उदीरणा से जो मानसिक आकुलता होती है अर्थात् उस परिग्रह को ग्रहण करने की भावना जागृत होती है, उसको परिग्रह संज्ञा कहते हैं। इन दुर्लेश्या, अपध्यान, अवत, कषाय, दण्ड, प्रमाद, मद, शल्य, असंयम, गारव, भय, संज्ञा आदि दोषों के समूह का त्याग करना चारित्र आराधना का उपाय है।
हिंसादि पापों का त्याग करना व्रत है। व्रत के भेद-प्रभेदों का कथन चारित्र आराधना में किया जा चुका है।
सम्सम्यक्प्रकार से, इतिगमनादि पाँच प्रकार की क्रिया करना समिति है।
जिनेन्द्रदेव ने संयमशुद्धि के लिए ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापन समिति ये पाँच समितियाँ कही हैं।
ईर्या समिति - चार हाथ आगे की भूमि को देखते हुए चलना अर्थात् चार हाथ आगे देखे हुए मार्ग में गमन करना।
भाषा समिति - आगमानुसार हित, मित, प्रिय, वचन बोलना।
एषणा समिति - जो चर्म आदि अशद्ध पदार्थों के स्पर्श से रहित, उद्गम, उत्पादन आदि छयालीस दोषों से रहित प्रासुक हो पुनः पुनः शोधित कर उस शुद्ध आहार को ग्रहण करना।
आदान निक्षेपण समिति - पुस्तक, कमण्डलु, आदि वस्तुओं को अच्छी तरह से देखकर तथा कोमल पिच्छिका से प्रमार्जन कर उठाना और रखना।