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________________ आराधनासमुध्ययम् ३२९ एवं आचार्यभक्ति पढ़कर स्वाध्याय प्रारंभ करना विनय शुद्धि है। विनयपूर्वक शास्त्राभ्यास करने से विद्याएँ सिद्ध होती हैं, शीघ्र ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। __अक्षरज्ञान से शून्य नन्दीषेण श्रुत और श्रुतधारियों की विनय करने से ११ अंग और १४ पूर्व के पाठी बन गये थे। नन्दीषण दीधेश एक नविन बुद्धिही. पालीम में मंगला थी, नौ भाई थे, परन्तु इसके पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय से घर में या बाहर में इसका कोई भी सत्कार-पुरस्कार नहीं करता था। न इसे पेट भरकर भोजन मिलता था। एक दिन किसी जगह कोई मेला लगा था। सारे नगरवासियों की भीड़ लगी थी। शारीरिक दुर्बलता के कारण नंदीषेण गिर गया। भीड़ के कारण मानव उसको पैरों से रौंदते हुए चले गये। किसी ने उसको उठाने का साहस नहीं किया। इस प्रकार अपना अनादर एवं दुखद अवस्था देखकर वह मरने का निश्चय करके एक पर्वत पर चढ़ा, परन्तु मरने से भयभीत होकर पर्वत पर चढ़ना-उतरना करने लगा। पर्वत तट पर स्थित मुनिराज की दृष्टि उस पर पड़ी। उसको आसन्नभव्य जानकर उन्होंने संबोधित किया तथा सारे सांसारिक बंधनों से छुड़ाकर जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान की। नंदीषेण ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर श्रुत और श्रुतधारियों का विनय करना प्रारंभ किया। वे विनय में इतने निष्णात हो गये कि उनके यश की सौरभ स्वर्ग तक पहुँच गई। एक दिन स्वर्ग की सभा में इन्द्र ने नंदीषेण की प्रशंसा की, जिसे सुनकर एक देव उनकी परीक्षा करने के लिए मुनि के वेश में आकर उन के चरणों में गिर पड़ा। उसको रुग्ण देखकर उन्होंने उसकी आहार व्यवस्था की, परंतु ज्योंही उनका आहार हुआ, उन्होंने नंदीषेण पर वमन कर दिया, जिससे नंदीषेण का सारा शरीर वमन के कीचड़ में भर गया तथापि उनके मानसिक विकृति नहीं हुई। देव ने अपनी विक्रिया समेट कर क्षमायाचना की। इस प्रकार आंतरिक श्रुत तथा श्रुतधारी के विनय से वे ११ अंग और १४ पूर्व के पाठी हो गये थे। उपधान विनय - विशेष नियम धारण करना, जब तक यह शास्त्र या यह अनुयोग प्रकरण समाप्त नहीं होगा, तब तक मैं एक उपवास, एक पारणा करूँगा, इत्यादि रूप में संकल्प करना उपधान विनय है, यह उपधान ज्ञानावरणीय कर्म का नाशक तथा श्रुतज्ञान का उत्पादक है। एक मुनिराज निरंतर स्वाध्याय करते थे, परन्तु उनको धारणा ज्ञान नहीं होता था। धारणा न होने से कालांतर में स्मृति नहीं रहती। अत: वे शास्त्राध्ययन करके भी ज्ञान से शून्य थे। एक दिन उन्होंने अपने
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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