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________________ आराधनासमुस्वयम् ३२८ चाहिए क्योंकि ये स्वाध्याय के लिए अकाल हैं तथा अष्टाह्निक आदि वर्जनीय काल का परिहार कर शेष काल में स्वाध्याय, पठन - पाठन, व्याख्यान आदि करना चाहिए। क्योंकि अकाल में स्वाध्याय करने से जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का तिरस्कार होता है, ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है, इसलिए कालशुद्धि पूर्वक पठन - पाठन करना ज्ञानाराधना का उपाय है। अकाल में स्वाध्याय करने से हानि और काल में स्वाध्याय करने के फल का दृष्टान्त - विद्वच्छिरोमणि वीरभद्र मुनि सारी रात स्वाध्याय करते रहे, काल-अकाल का ध्यान नहीं रखा, उनको संबोधित करने के लिए श्रुतदेवी एक ग्वालिन का भेष धारण कर, मस्तक पर छाछ की मटकी रख कर और यह कहती हुई कि “मेरे पास बहुत मीठी छाछ है' मुनिराज के चारों तरफ घूमने लगी। मुनि ने तब उसकी और देखकर कहा - "अरी ! तू बड़ी बेसमझ जान पड़ती है, कहीं पागल तो नहीं हो गई। बतला तो ऐसे एकांत स्थान में और सो भी रात में ग्वरीदेगा कौन तेरी छाछ ?" देवी ने कहा - "महाराज ! क्षमा कीजिये, मैं तो पगली नहीं हूँ, किन्तु मुझे तो दीख रहे हैं पागल आप, अन्यथा असमय शास्त्राभ्यास कैसे करते ? कैसे करते जिन भगवान की आज्ञा का उल्लंघन ?" देवी का उत्तर सुनकर मुनिराज ने आकाश की ओर नजर उठाकर देखा तो उन्हें दीख पड़े चमकते हुए तारे तब उन्हें भान हुआ कि सचमुच मैंने अकाल में स्वाध्याय कर बड़ी भूल की। उनका हृदय पश्चाताप से जलने लगा। प्रात:काल गुरु के समीप जाकर उन्होंने अपनी भूल की आलोचना की और गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त ग्रहण करके मनः शुद्धि करके अन्त में समाधिमरण कर स्वर्ग प्राप्त किया। जो स्वाध्याय के काल-अकाल को जानकर भी अकाल में स्वाध्याय करना नहीं छोड़ते, वे शिवनंदी मुनि के समान दुर्गति में जाते हैं। शिवनंदी मुनि ने अपने गुरु के द्वारा यद्यपि यह जान रखा था कि स्वाध्याय का समय श्रवण नक्षत्र के उदय होने के बाद ही माना गया है, तथापि कर्मों के तीव्र उदय से वे अकाल में भी स्वाध्याय करना नहीं छोड़ते, जिसके फलस्वरूप वे असमाधि से मरण कर गंगा नदी में मगरमच्छ हुए थे। ठीक ही है, जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करने वालों को दुर्गति के दुख भोगने पड़ते हैं। एक दिन गंगा तट पर किसी मुनिराज को स्वाध्याय करते देख मगरमच्छ को जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हो गई, जिससे अपने पूर्वभव के वृत्तांत को जानकर वह पश्चाताप करने लगा। अंत में, शुभ परिणामों से प्राण छोड़कर वह मगरमच्छ स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ। काल में शास्त्राभ्यास करना ज्ञान का आदर करना है, ज्ञान का विनय करना है। विनय शुद्धि - श्रुतज्ञान और श्रुतधर के गुणों की प्रशंसा करना, उनका संस्तवन करना, श्रुतभक्ति
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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