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आराधनासमुच्चयम् ३२२
बलि ने और भी कुछ माँगने का बहुत आग्रह किया, परन्तु विष्णुकुमार ने कहा, “मुझे और कुछ नहीं चाहिए। इतने में ही मुझे संतोष है।" जब वामन ब्राह्मण तीन पैंड भूमि के सिवाय कुछ भी माँगने को तैयार नहीं हुए, तब बलि ने कहा - "जैसी आपकी इच्छा । आप अपने पैरों से भूमि माप लीजिए।''यह कहकर बलि ने विष्णुकुमार के हाथ में संकल्प जल छोड़ा। संकल्प छोड़ते ही उन्होंने पृथ्वी मापना शुरू किया।
पहला पैर उन्होंने सुमेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, तीसरा पैर रखने को जगह नहीं रही। उनके इस प्रभाव से सारी पृथ्वी काँप उठी। सारे पर्वत हिल गये। समुद्र ने मर्यादा तोड़ दी। देवों और ग्रहों के विमान परस्पर टकराने लगे। देवगण आश्चर्यचकित हो गये। सारे देव विष्णुकुमार के पास आकर क्षमायाचना करने लगे। इस घटना से बलि का हृदय भी कॉप गया। उसने विष्णुकुमार मुनि के चरणों में गिर कर क्षमा याचना की।
___ इस प्रकार विष्णुकुमार मुनि ने सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर कर वात्सल्य प्रकट किया। देवों ने विष्णुकुमार की पूजा की।
इस प्रकार जो वात्सल्य अंग से युक्त होता है, उसी के सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। .
अज्ञान रूपी अंधकार की व्याप्ति दूर करके अपनी शक्ति अनुसार जिनधर्म की प्रभावना करना, उद्योत-प्रचार करना प्रभावना अंग है। निश्चय और व्यवहार के भेद से प्रभावना अंग दो प्रकार का है।
व्यवहार प्रभावना गुण के बल से मिथ्यात्व, विषय, कषाय आदि सारे विभावपरिणाम स्वरूप पर - समय के प्रभाव का विनाश कर शुद्धोपयोग लक्षण वाले स्वसंवेदन ज्ञान से निर्मल ज्ञान - दर्शन स्वभाव वाली निज शुद्धात्मा का प्रकाशन करना, अनुभव करना निश्चय प्रभावना अंग है अथवा निश्चय व्यवहार रत्नत्रय के द्वारा अपनी आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों का नाश कर अपनी आत्मा को निर्मल उज्ज्वल करने का प्रयल करना निश्चय प्रभावना है। क्योंकि मोह शत्रु के नाश होने से शुद्ध, शुद्धतर और शुद्धतम अवस्था की प्राप्ति ही आत्मप्रभावना कहलाती है। पर-समय मिथ्यामत रूपी जुगनुओं के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश से, इंद्रों के आसन को कैंपा देने वाले महोपवासादि सम्यक् तप के द्वारा तथा भव्य जन रूपी कमलों को विकसित करने वाली जिनपूजा के द्वारा जिनधर्म का उद्योत करना, प्रचार-प्रसार करना व्यवहार प्रभावना अंग है।
प्र - उपसर्ग है और भा - धातु कांति अर्थ में है, अतः उत्कृष्ट रूप से जिनधर्म को प्रकाशित करना प्रभावना है। सम्यग्दर्शन को निर्मल करने के लिए निश्चय और व्यवहार रूप दोनों प्रभावना अंग का पालन करना आवश्यक है। अत: महापुराणादि धर्मकथा के व्याख्यान के द्वारा, हिंसादि दोष रहित तपश्चरण कर जीवों की दया, अनुकंपा, अष्टांग निमित्त ज्ञान, दान, पूजा आदि द्वारा तथा परवादियों के साथ विवाद कर विद्या के अतिशयों के द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए।