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आराधनासमुच्चयम् २९२
इस ग्रन्थ के प्रारंभ में आचार्यदेव ने गुण और गुणी के भेद से आराध्य दो प्रकार के कहे थे। उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के भेद से चार प्रकार के गुणरूप आराध्य का कथन चार आराधना में कहा और यहाँ पर गुणो (जिसमें सम्यग्दर्शन आदि गुण पाये जाते है ऐसे) रूप पाँच प्रकार के आराध्य का कथन किया है। अतः पाँच परमेष्ठी आराध्य हैं उनकी आराधना से आत्मस्वरूप की सिद्धि होती है।
आराध्य कथन पूर्ण हुआ ।
दर्शनाराधना करने वाले मानव का स्वरूप
उपशमवेदकसम्यग्दर्शनभाजो विशुद्धपरिणामाः । तद्योग्यगुणा जीवाः सम्यक्त्वाराधका ज्ञेयाः ||२२२ ॥
अन्वयार्थ - विशुद्धपरिणामाः विशुद्ध परिणाम वाले । तद्योग्यगुणाः - सम्यग्दर्शन के योग्य गुणों के धारक । उपशम-वेदकसम्यग्दर्शनभाजः - उपशम और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन युक्त । जीवाः - जीव। सम्यक्त्वाराधकाः सम्यग्दर्शन की आराधना के आराधक हैं। ज्ञेया: - जानना चाहिए। इसमें क्षायिक सम्यग्दर्शन का उल्लेख नहीं है।
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अर्थ - सम्यग्दर्शन का लक्षण सम्यग्दर्शनाराधना में लिखा है, उपशम और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वधारी विशुद्ध परिणाम वाले निःशंकित आदि गुणधारक जीव ही सम्यग्दर्शन आराधना के आराधक होते हैं।
सम्यग्दर्शन आराधना की आराधना करने वाला सम्यग्दृष्टि ही होता है, मिध्यादृष्टि सम्यग्दर्शन की आराधना का पात्र नहीं होता क्योंकि निःशंकितादि गुण सहित सम्यग्दर्शन को धारण करना ही दर्शनाराधना
है ।
आराधना और आराधक जन में गुण-गुणी का भेद है, आराधना गुण है और आराधक गुणी है। सम्यग्दर्शनादि गुणों को स्व में प्रगट करने के लिए उन गुणों की आराधनाकर स्त्र में उन गुणों को प्रगट कर लेना ही आराधना है।
ज्ञानाराधना के आराधक जन का लक्षण
मत्यादिच्छद्मस्थज्ञानसमेतास्तदुचितगुणवन्तः । ज्ञानाराधकसंज्ञा भवन्ति सुविशुद्धपरिणामाः ॥ २२३ ॥
अन्वयार्थ - मत्यादिच्छद्यस्थज्ञानसमेताः - मत्यादि छद्यस्थ ज्ञान से युक्त । तदुचितगुणवन्तः