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आराधनासमुच्चयम् २९१
अन्वयार्थ - मूलोत्तराभिधानैः - मूल और उत्तर नामक । अखिलगुणः - सम्पूर्ण गुणों के द्वारा। शासनप्रकाशकराः - जिनशासन का उद्योतन करने वाले। द्वितीयके - इस पंचम, काले - काल में। अपि - भी। प्रवर्त्तमानाः - प्रवर्तमान। प्रवरशीलाः - उत्कृष्ट शील के धारी और । सिंहगजवृषभमृगपशुमारुत - सूर्याब्धि मन्दरेन्दु मणि क्षित्युरगाम्बर सदृशाः - सिंह, हाथी, बैल, हरिण, पशु, वायु, सूर्य, समुद्र, मन्दर, चन्द्रमा, मणि, पृथ्वी, सर्प और आकाश के सदृश स्वभाव वाले। परमपदान्वेषिणोः - परमपद का अन्वेषण करने वाले। यतय: - मुनीश होते हैं।
अर्थ - पञ्चमहाव्रत, पंच समिति, पञ्चेन्द्रिय निरोध, षड़ावश्यक पालन, स्नान त्याग, दंतमंजन त्याग, वस्त्रादि के परिधान का त्याग, भूमिशयन, खड़े होकर आहार लेना, दिन में एक बार आहार लेना
और केशलुंचन करना ये अट्ठाईस मूलगुण हैं । दस धर्म का पालन, तीन गुप्ति का धारण, अठारह हजार शीलों का पालना, २२ परिषहविजय आदि चौरासी लाख उत्तरगुण हैं, जिनका वर्णन पूर्व में किया गया है। इन मूलगुणों और उत्तरगुणों के द्वारा जिलशासन का उद्घोटन-प्रकाशन करते हैं। इन साधु परमेष्ठियों का अस्तित्व इस पंचम काल में भी पाया जाता है। ये उत्कृष्ट शील के धारी होते हैं।
जो अनन्त ज्ञानादि रूप आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं, जो पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, वा अठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तरगुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी या उन्नत बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह गोचरी करने वाले, पवन के समान निस्संग या सब जगह बिना रुकावट के विचरने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी या सकल तत्त्वों के प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागर के समान गम्भीर, मन्दराचल अर्थात् सुमेरु पर्वत के समान परीषह और उपसर्गों के आने पर अकम्प और अडोल रहने वाले, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुंजयुक्त, क्षिति के समान सर्व प्रकार की बाधाओं को सहने वाले, उरग अर्थात् सर्प के समान दूसरे के बनाये हुए अनियत आश्रय, वसतिका आदि में निवास करने वाले, अम्बर अर्थात् आकाश के समान निरालम्बी या निर्लेप और सदाकाल परमपद अर्थात् मोक्ष का अन्वेषण करने वाले होते हैं।
आराधना की सिद्धि में ये पाँचों परमेष्ठी आराध्य हैं। इन आराध्य पुरुषों की आराधना से ही मुक्तिसिद्धि तथा स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति होती है। क्योंकि इन पंचपरमेष्ठी का ध्यान मानसिक कालुष्य को धोने के लिए निर्मल नीर है।
आराध्यस्वरूप पंचपरमेष्ठी का ध्यान मोक्षद्वार को खोलने के लिए कुंजी के समान है। संसारसमुद्र से पार करने के लिए नौका है। अनादिकालीन कर्म पटल से आच्छादित आत्मनिधि को प्राप्त करने के लिए कर्म रूपी पृथ्वी की भेदक कुल्हाड़ी है। विषयवासना की प्यास बुझाने के लिए अमृत सदृश है। मुक्ति रूपी सुन्दरी के मुखावलोकन के लिए दर्पण के तुल्य है और काम, भोग रूप अप्रशस्त राग के अंगारों से पच्यमान प्राणियों के संताप को दूर करने के लिए सजल मेघ है। अत: ये पाँच परमेष्ठी आराध्य हैं।